महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचन्द या टालस्टाय के बारे में 'कुछ' लिखना बड़ा आसान लगता है। क्योंकि उनके द्वारा लिखे गए के अलावा उनके बारे में लिखा गया भी बहुत पढ़ा जा चुका है। पर किसी उस व्यक्ति के बारे में लिखा हुआ कम पढ़ा गया हो पर हो वह सुपरिचित। अब यह समझ में ही नहीं आ रहा कि श्री दीनदयाल शर्मा को क्या माना जाए?बाल साहित्यकार, साहित्यकार, कवि, हँसोड़, पत्रकार या फिर केवल मित्र। यह निर्णय कर पाना काफी कठिन है कि उनका कौनसा रूप उल्लेखनीय है या वे हरफनमौला हैं। कुछ भी हो, उन्हें यदि साहित्य का आमिर खान कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हिन्दी फिल्म जगत ज्यादातर अभिनेता कद में लम्बे हैं, पर कद में छोटा होने पर भी आमिर खान अभिनय में कइयों से ऊंचे हैं। इसी तरह सामान्य कद काठी के श्री दीनदयाल शर्मा भीड़ में चाहे छिप जाएं, पर साहित्य जगत में अपना कद काफी ऊंचा कर चुके हैं। यहां उन्हें छिपाना अब संभव नहीं है।
उनके परिचय का दायरा भी लम्बा-चौड़ा है। देश में कहीं भी जाएं, जहां दो-चार कवि, लेखक जुड़ेगे, इनके परिचित मिल ही जाएंगे। कुछ साल पहले उदयपुर में एक सज्जन मिले। परिचय हुआ। उन्हें बताया कि संगरिया हनुमानगढ़ जिले में हैं तो वे चहके-हनुमानगढ़ में तो एक वे हैं जो डुक मार कर हँसाते हैं...दीनदयाल जी..।
दुनियाभर में पहलवान दूसरे को रुलाने के लिए घंूसा मारते हैं। एक दीनदयाल शर्मा ही हैं, जो दूसरों को हँसाने के लिए घूंसे या राजस्थानी 'डुक' मारते हैं। कहने का मतलब है कि मंच से जिसने भी इनकी राजस्थानी कविताएं सुन ली हैं, वह इन्हें भूल नहीं सकते। अभी कुछ दिन पहले अलवर के श्री सुमतिकुमार जैन से बात हुई तो बोले आपके हनुमानगढ़ में तो हमारे परिचित हैं...। वे आगे कुछ बोले, इससे पहले ही मेरे मुँह से निकल गया-दीनदयाल शर्मा...।
हां, बिल्कुल यही....।
जो वे बताने जा रहे थे। कभी-कभी लगता है हनुमानगढ़ को प्रसिद्धि भटनेर या घग्घर से नहीं बल्कि श्री दीनदयाल शर्मा से ज्यादा मिली है। अनजान व्यक्तियों से भी उन्हें सहजता से बात करते, उनसे घुलते-मिलते देखा गया है। गाड़ी में, बस में...खाली रस्मी परिचय नहीं, रचनात्मक। एक बार गाड़ी में उनके साथ स$फर करते हुए देखा कि अपरिचित से परिचित होते ही उन्होंने उसके हाथ में अपनी कोई किताब या टाबर टोल़ी का नया अंक थमा दिया। इस हिदायत के साथ कि खुद भी पढऩा और बच्चों को भी पढ़ाना। यदि दीनदयाल के बस्ते में दो किताब है तो समझिए, किताबें कैद में नहीं रहेंगी। उन्हें पाठक मिलेंगे। मेरे जैसे व्यक्ति के साथ श्री दीनदयाल बैठते हैं तो कितना अजीब लगता होगा। क्योंकि मैं किताबें बांटने में जितना कंजूस हूँ , वे उतने ही उदार।
जब भी किसी लेखक के बारे में अखबार में कोई सुसमाचार छपे और सुबह-सुबह ही लेखक, को 'मैसेज' का संकेत मिले तो सब समझ जाते हैं कि श्री दीनदयाल का बधाई संदेश है। इसलिए मजाक में यही कहा जाता है कि श्री दीनदयाल शर्मा रात में सोने से पहले 'अगले दिन' का दैनिक पढ़ लेते हैं और जागते ही मुँह धोने से पहले बधाई का एस.एम.एस. भेज देते हैं। इनकी यह सजगता और तत्परता लेखक और अखबार दोनों को निहाल कर देती है।
श्री दीनदयाल शर्मा को अभी तक टीवी के लाफ्टर शो में जाने का अवसर नहीं मिला है। इसलिए वे हमें और आपको हँसा कर अपनी इस कला का प्रदर्शन करते रहते हैं। अखबार में वर्गीकृत विज्ञापन की तरह वर्गीकृत लतीफों का भी उनके पास भंडार है। जैसे आप हैं, वैसा ही लतीफाबाण आपकी ओर आता दिखाई देगा। आपको नाक-भौं सिकोडऩे का मौका नहीं देंगे कि आप कहें-यह क्या सुना दिया। मर्यादा ही भंग कर दी। यही कारण है कि लड़कियों के कॉलेज में भी कन्याओं का मनोरंजन करने बुला लिए जाते हैं। स्टाफ निश्चित रहता है कि सीमारेखा का उल्लंघन नहीं होगा। आजकल तो पता नहीं, पहले तो $खुद दीनदयाल ही इसकी व्यवस्था करते थे। जब लड़कियों, महिलाओं की सभा में हास्य बिखेरने जाते थे, तब अद्र्धांगिनी श्रीमती कमलेश शर्मा को साथ ले जाते ताकि नियंत्रित रहें। ऐसा बताकर वे सरलता से स्वीकार करते रहे हैं कि उन पर बीवी का कंट्रोल है।
खैर, यह तो उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की बात है। यदि उनके कृतित्व पर दृष्टिपात करें तो वह भी कम नहीं है। उनकी 'मैं उल्लू हूँ ' यह उनकी स्वीकारोक्ति नहीं, उनके व्यंग्य संग्रह का शीर्षक है। उनके व्यंग्य लेखन का पुख्ता प्रमाण है। बाल साहित्य में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके कई बाल कथा संग्रह तो तभी छप गए थे जब आज के कई साहित्यकार शैशवास्था में थे। कवि के रूप में तो यही कहा जाएगा कि आज तक किसी मंच पर असफल नहीं हुए हैं। उनके लिए आमतौर पर 'एक और'... 'एक और'.... सुनाई देता है। क्षेत्र के कई साहित्यकारों को 'प्रकाशित' होने में उन्होंने संपादन-प्रकाशन मार्ग निर्देशन के क्षेत्र में अभूतपूर्व सहयोग दिया है। इनकी वजह से कइयों के हाथ में उनकी प्रकाशित कृतियां हैं। पर पत्रकारिता के क्षेत्र में टाबर टोल़ी उनका अभिनव प्रयोग है।
राजस्थान से बाहर हिन्दी क्षेत्रों में उनके पाक्षिक का नाम कइयों को भ्रमित कर देता है, पर मैटर उन्हें हर्षित करता है। साहित्य और बाल साहित्य से जुड़े इस पाक्षिक को उनके धैर्य का प्रतीक कहा सकता है। गत सात वर्षों से निरंतर नियमित प्रकाशन, संपादन... वह भी साधन विहीनता की स्थिति में आश्चर्यचकित तो करता ही है। इसी उत्साह ने उन्हें एक बार कानिया मानिया कुर्र..नाम से राजस्थानी बाल अख़बार प्रकाशित करने की प्रेरणा हुई। पर तीनेक साल से आगे यह गाड़ी नहीं चली। काश...राजस्थानी अभियान के नेता आगे आते और एक नये नवेले राजस्थानी बाल अखबार को मरने न देते। खैर, कुछ भी हो, जीवन में अक्सर झंझावतों का सामना करना पड़ता है, पर वे अपने पथ से विचलित नहीं हुए, उनकी यह जिजीविषा बनी रहे, यही कामना है।
गोविंद शर्मा, ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया, राजस्थान
1-15 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार
1-15 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार