Wednesday, July 21, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -22

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी : 
दीनदयाल शर्मा

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचन्द या टालस्टाय के बारे में 'कुछ' लिखना बड़ा आसान लगता है। क्योंकि उनके द्वारा लिखे गए के अलावा उनके बारे में लिखा गया भी बहुत पढ़ा जा चुका है। पर किसी उस व्यक्ति के बारे में लिखा हुआ कम पढ़ा गया हो पर हो वह सुपरिचित। अब यह समझ में ही नहीं आ रहा कि श्री दीनदयाल शर्मा को क्या माना जाए?बाल साहित्यकार, साहित्यकार, कवि, हँसोड़, पत्रकार या फिर केवल मित्र। यह निर्णय कर पाना काफी कठिन है कि उनका कौनसा रूप उल्लेखनीय है या वे हरफनमौला हैं। कुछ भी हो, उन्हें यदि साहित्य का आमिर खान कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हिन्दी फिल्म  जगत ज्यादातर अभिनेता कद में लम्बे हैं, पर कद में छोटा होने पर भी आमिर खान अभिनय में कइयों से ऊंचे हैं। इसी तरह सामान्य कद काठी के श्री दीनदयाल शर्मा भीड़ में चाहे छिप जाएं, पर साहित्य जगत में अपना कद काफी ऊंचा कर चुके हैं। यहां उन्हें छिपाना अब संभव नहीं है।

उनके परिचय का दायरा भी लम्बा-चौड़ा है। देश में कहीं भी जाएं, जहां दो-चार कवि, लेखक जुड़ेगे, इनके परिचित मिल ही जाएंगे। कुछ साल पहले उदयपुर में एक सज्जन मिले। परिचय हुआ। उन्हें बताया कि संगरिया हनुमानगढ़ जिले में हैं तो वे चहके-हनुमानगढ़ में तो एक वे हैं जो डुक मार कर हँसाते हैं...दीनदयाल जी..।

दुनियाभर में पहलवान दूसरे को रुलाने के लिए घंूसा मारते हैं। एक दीनदयाल शर्मा ही हैं, जो दूसरों को हँसाने के लिए घूंसे  या राजस्थानी 'डुक' मारते हैं। कहने का मतलब है कि मंच से जिसने भी इनकी राजस्थानी कविताएं सुन ली हैं, वह इन्हें भूल नहीं सकते। अभी कुछ दिन पहले अलवर के श्री सुमतिकुमार जैन से बात हुई तो बोले आपके हनुमानगढ़ में तो हमारे परिचित हैं...। वे आगे कुछ बोले, इससे पहले ही मेरे मुँह से निकल गया-दीनदयाल शर्मा...। 

हां, बिल्कुल यही....।

जो वे बताने जा रहे थे। कभी-कभी लगता है हनुमानगढ़ को प्रसिद्धि भटनेर या घग्घर से नहीं बल्कि श्री दीनदयाल शर्मा से ज्यादा मिली है। अनजान व्यक्तियों से भी उन्हें सहजता से बात करते, उनसे घुलते-मिलते देखा गया है। गाड़ी में, बस में...खाली रस्मी परिचय नहीं, रचनात्मक। एक बार गाड़ी में उनके साथ स$फर करते हुए देखा कि अपरिचित से परिचित होते ही उन्होंने उसके हाथ में अपनी कोई किताब या टाबर टोल़ी का नया अंक थमा दिया। इस हिदायत के साथ कि खुद भी पढऩा और बच्चों को भी पढ़ाना। यदि दीनदयाल के बस्ते में दो किताब है तो समझिए, किताबें कैद में नहीं रहेंगी। उन्हें पाठक मिलेंगे। मेरे जैसे व्यक्ति के साथ श्री दीनदयाल बैठते हैं तो कितना अजीब लगता होगा। क्योंकि मैं किताबें बांटने में जितना कंजूस हूँ , वे उतने ही उदार।

जब भी किसी लेखक के बारे में अखबार में कोई सुसमाचार छपे और सुबह-सुबह ही लेखक, को 'मैसेज' का संकेत मिले तो सब समझ जाते हैं कि श्री दीनदयाल का बधाई संदेश है। इसलिए मजाक में यही कहा जाता है कि श्री दीनदयाल शर्मा रात में सोने से पहले 'अगले दिन' का दैनिक पढ़ लेते हैं और जागते ही मुँह धोने से पहले बधाई का एस.एम.एस. भेज देते हैं। इनकी यह सजगता और तत्परता लेखक और अ$खबार दोनों को निहाल कर देती है।

श्री दीनदयाल शर्मा को अभी तक टीवी के लाफ्टर शो में जाने का अवसर नहीं मिला है। इसलिए वे हमें और आपको हँसा कर अपनी इस कला का प्रदर्शन करते रहते हैं। अखबार में वर्गीकृत विज्ञापन की तरह वर्गीकृत लतीफों का भी उनके पास भंडार है। जैसे आप हैं, वैसा ही लतीफाबाण आपकी ओर आता दिखाई देगा। आपको नाक-भौं सिकोडऩे का मौका नहीं देंगे कि आप कहें-यह क्या सुना दिया। मर्यादा ही भंग कर दी। यही कारण है कि लड़कियों के कॉलेज में भी कन्याओं का मनोरंजन करने बुला लिए जाते हैं। स्टाफ निश्चित रहता है कि सीमारेखा का उल्लंघन नहीं होगा। आजकल तो पता नहीं, पहले तो $खुद दीनदयाल ही इसकी व्यवस्था करते थे। जब लड़कियों, महिलाओं की सभा में हास्य बिखेरने जाते थे, तब अद्र्धांगिनी श्रीमती कमलेश शर्मा को साथ ले जाते ताकि नियंत्रित रहें। ऐसा बताकर वे सरलता से स्वीकार करते रहे हैं कि उन पर बीवी का कंट्रोल है।

खैर, यह तो उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की बात है। यदि उनके कृतित्व पर दृष्टिपात करें तो वह भी कम नहीं है। उनकी 'मैं उल्लू हूँ ' यह उनकी स्वीकारोक्ति नहीं, उनके व्यंग्य संग्रह का शीर्षक है। उनके व्यंग्य लेखन का पुख्ता प्रमाण है। बाल साहित्य में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके कई बाल कथा संग्रह तो तभी छप गए थे जब आज के कई साहित्यकार शैशवास्था में थे। कवि के रूप में तो यही कहा जाएगा कि आज तक किसी मंच पर असफल नहीं हुए हैं। उनके लिए आमतौर पर 'एक और'... 'एक और'.... सुनाई देता है। क्षेत्र के कई साहित्यकारों को 'प्रकाशित' होने में उन्होंने संपादन-प्रकाशन मार्ग निर्देशन के क्षेत्र में अभूतपूर्व सहयोग दिया है। इनकी वजह से कइयों के हाथ में उनकी प्रकाशित कृतियां हैं। पर पत्रकारिता के क्षेत्र में टाबर टोल़ी उनका अभिनव प्रयोग है। 

राजस्थान से बाहर हिन्दी क्षेत्रों में उनके पाक्षिक का नाम कइयों को भ्रमित कर देता है, पर मैटर उन्हें हर्षित करता है। साहित्य और बाल साहित्य से जुड़े इस पाक्षिक को उनके धैर्य का प्रतीक कहा सकता है। गत सात वर्षों से निरंतर नियमित प्रकाशन, संपादन... वह भी साधन विहीनता की स्थिति में आश्चर्यचकित तो करता ही है। इसी उत्साह ने उन्हें एक बार कानिया मानिया कुर्र..नाम से राजस्थानी बाल अख़बार प्रकाशित करने की प्रेरणा हुई। पर तीनेक साल से आगे यह गाड़ी नहीं चली। काश...राजस्थानी अभियान के नेता आगे आते और एक नये नवेले राजस्थानी बाल अखबार को मरने न देते। खैर, कुछ भी हो, जीवन में अक्सर झंझावतों का सामना करना पड़ता है, पर वे अपने पथ से विचलित नहीं हुए, उनकी यह जिजीविषा बनी रहे, यही कामना है।                        

गोविंद शर्मा,  ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया, राजस्थान
1-15 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -21


बाल साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर : 
श्री दीनदयाल शर्मा

कभी-कभी मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि हमारे बीच के ही कुछ साहित्यकार इस बात से चिंतित दिखाई देते हैं कि बच्चों के जाने-पहचाने या प्रसिद्ध लेखक प्राय: नहीं लिख रहे हैं, यह बात बाल साहित्य के लिए अच्छी नहीं है। या फिर बड़ों के लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखते, इस कारण बाल साहित्य में स्तरीय रचनाओं का अभाव हो गया है। 

मुझे लगता है ऐसा है नहीं। यह बहुत सीमित सोच की उपज लगती है। अमुक लेखक बड़े हैं, बड़ा नाम है लेकिन बच्चों के लिए नहीं लिखते। ऐसे तथ्य ही बाल-साहित्य को हतोत्साहित करने को काफी हैं। 

एक कारण और मेरी समझ से यह भी है कि बाल साहित्य पर गंभीर रूप से, संजीदगी के साथ समीक्षात्मक कार्य न हो पाने के कारण बाल साहित्यकारों की श्रेष्ठ रचनाएं साहित्य-प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय नहीं बन पाती हैं। शायद इसीलिए हमारे कुछ बौद्धिक साहित्यिक मित्रों, लोगों को लगता है कि देश में बाल-साहित्य सर्जकों की कमी है, या फिर श्रेष्ठ बाल साहित्य अब नहीं रचा जा रहा। यह तो निराशावादी दृष्टि है। 

साथ ही मेरा यह भी मानना  है कि हर लेखक बाल-साहित्य लिख ही नहीं सकता। बच्चों के लिए लिखने में बच्चों जैसा मन प्राप्त करना पहली शर्त है। 

आप बड़ों के मन को भले ही टटोल लेंगे कि भीतर क्या चल रहा है? लेकिन बच्चों के मन की थाह पा लेना आसान नहीं। उनका कल्पना संसार बड़ा अद्भुत है। मौलिक भी है। बच्चों के मन को बांचने, फिर उसे बांध लेने का कौशल प्रदर्शित करना सिद्धहस्त साहित्यकार के लिए ही सम्भव है। ऐसा साहित्यकार ही समय की नब्ज़ को पहचानने और उसी अनुरूप अपनी लेखनी में भी बदलाव कर लेता है। पुराने और नए के बीच सामंजस्य भी बना लेता है। यह प्रसन्नता की ही बात है कि जिन बाल साहित्यकारों ने इस बदलाव को समझ लिया है, उनमें देश के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार दीनदयाल शर्मा भी शामिल है। श्री शर्मा ने हिन्दी साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में लेखन किया है। अनेक पुस्तकों का संपादन भी इन्होंने किया है। चूंकि स्वयं मन से सरल, सरस, खुश मिज़ाज व्यक्ति हैं इसलिए बाल-साहित्य भी रचते रहे हैं। अपनी रचनाओं में हास्य के रंग भी बिखेरते रहे हैं। इनकी खास बात यह है कि इनका लेखन नियमित रहता है। बाल साहित्य संबंधी गोष्ठियों में भी इनकी जीवंत उपस्थिति दूर-दूर तक रहती है। जैसा सीधा-सादा व्यक्ति है वैसा ही सीधा-सादा व्यक्तित्व। इनकी रचनाओं में नाना प्रकार के भाव एवं आस्वाद सहज रूप से देखने को मिलता है। कोई बौद्धिक लठैतपना नहीं, कोई पांडित्य भी नहीं। सहज, मन का स्पर्श करती हुई लेखनी। 

श्री दीनदयाल शर्मा बाल साहित्य को हर तरह से प्रासंगिक बनाने के अपने संकल्प में हर तरह से समर्पित दिखाई देने वाले साहित्यकार हैं। वे देश के एक महत्वपूर्ण बाल साहित्यकार के रूप में अपनी पहचान तेज़ी से बनाते जा रहे हैं तो मेरे ख्याल से इसके पीछे है- इनकी तर्क दृष्टि। इन्होंने यह अच्छी तरह से समझ लिया है कि अब सन् साठ के बच्चों के लिए नहीं, बल्कि आज के उन बच्चों के लिए लिखना है जो वर्तमान के हमारे जीवन, समाज, संस्कृति, राजनीति, अपराध आदि से अनभिज्ञ नहीं हैं। वे कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले बच्चे हैं। इनके अपने सपने हैं, अपनी अभिलाषाएं हैं, अपनी समस्याएं हैं और जो उनके पालनहारों से काफी भिन्न है। 

इसलिए वर्तमान की कटु सच्चाइयों के समाधान बताने वाली, जीवन में उत्साह, सकारात्मक सोच देने वाली रचनाएं लेकर ही बाल पाठकों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। आज की चुनौतियों का सामना करने के लिए बच्चों को स्वस्थ दिशा-निर्देश देना होगा-उपदेश से नहीं, उनके अपने जीवन और आस-पास के घटते घटनाचक्र के माध्यम से। 

मुझे सदैव इस बात की भी प्रसन्नता रही है कि श्री दीनदयाल शर्मा ने अपने बाल-साहित्य में मनोरंजन और विज्ञान के साथ-साथ सीख और परंपरा को नकारा नहीं है, बल्कि इन सबका सम्मान, स्वीकारोक्ति भाव से, समुचित व परस्पर सामंजस्य बनाए हुए वे बाल साहित्य की रचना कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह एक बहुत बड़ी बात है। इसलिए भी कि जब महानगर की सीमेंट-कंक्रीट वाली संस्कृति से जुड़े बाल-साहित्यकार के लेखन में से वे विषय तेज़ी से आगे बढऩे के चक्कर में पीछे छूटते जा रहे हैं, जिनमें शामिल है हमारे खेत-खलिहान, गांव, कस्बे, छोटे शहर, समाज, घर-परिवार। दीनदयाल शर्मा अपनी रचनाओं में इन्हें भी साथ लेकर चलते हैं। 

हनुमानगढ़ निवासी कलम का यह सिपाही आज देश में बाल साहित्य का सशक्त हस्ताक्षर है। इस प्यारे इन्सान, संजीदा और बच्चों-बड़ों में समान लोकप्रिय साहित्यकार की लेखनी से उपजी रचनाएं इसी प्रकार हमें मिलती रहेंगी, ऐसी आशा है। हिंदी व राजस्थानी में समानांतर लेखन वाले, अनेक पुस्तकों के रचयिता दीनदयाल शर्मा की कलम को मेरा भी सलाम पहुंचे। हार्दिक शुभकामनाएं। 

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, शिप्रा पथ, 
मानसरोवर, जयपुर



1-15 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार