Sunday, June 20, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -14

बाल कथा के सुरीले गायक : दीनदयाल शर्मा

श्री दीनदयाल शर्मा संभवत: एक मात्र ऐसे बाल साहित्यकार हैं, जिनकी अंग्रेजी नाट्य कृति "The Dreams" को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम के कर कमलों से लोकार्पण का सौभाग्य प्राप्त है। लोकार्पण भी ऐसा आह्लादकारी कि कृति की थीम सुनते ही महामहिम के मुख से अनायास ही निकल पड़ा- EXCELLENT.... यह शायद समीक्षा थी-एक श्रेष्ठ कृति की, एक उद्भट द्वारा, मात्र एक शब्द में एक कृति की ऐसी विशद्, विस्तृत और सटीक व्याख्या और कौन कर कर सकता है- डॉ. कलाम जैसे प्रखर चिन्तक के अलावा। ऐसे प्रबुद्ध व्यक्ति ही किसी रचना के मर्म को पहचान कर उसके सर्वांगीण मूल्यांकन हेतु ऐसे किसी एक सार्थक शब्द की शोध करते हैं।
वैसे तो दीनदयाल शर्मा ने  व्यंग्य, नाटक, एकांकी, निबन्ध, पत्रकारिता आदि साहित्य की अनेक विधाओं में अभिनव प्रयोग किए हैं, लेकिन उनका मन विशेष रूप से बाल कविताओं और बाल कहानियों के लेखन में रमा है। श्री शर्मा की यह अपनी विशेषता रही है कि वे कथा को कहते नहीं, अपितु गाते हैं जिससे उसमें एक निश्चित प्रवाह, लय, गति और छन्दमयी गेयता स्वत: आती चली जाती है और कहानी कविता का आनन्द देने लगती है।
श्री शर्मा की कविताओं में स्थितियां बहुत शीघ्रता से बदलती हैं। वे कभी सतरंगी हो जाती हैं, तो कभी बहुरंगी। कभी-कभी उनकी कविता केवल एक खूबसूरत चित्र होती है-खिलते हुए फूल का, चहचहाती हुई चिडिय़ा का, बच्चे के अधरों पर फैली पवित्र मुस्कान का या उसकी आंखों में अनायास उमड़ आये निर्मल आंसुओं का।  दीनदयाल शर्मा इन चित्रों को इतनी कुशलता से उकेरते हैं कि एक बार जब इनके चटक रंग उनके शब्दों से तादाम्य स्थापित कर लेते हैं, तो देखने वाले की दृष्टि उस आकर्षण के जादू से सहज मुक्त नहीं हो पाती।
कभी-कभी उनकी कविता संक्षिप्त कथा संदर्भ लिए लघु आख्यायिका सी प्रतीत होती है, तो कभी कोई विराट् संदेश अपने में छिपाये सूक्ति कथन सी। उनकी कविता कभी उपदेश नहीं होती। शिक्षाप्रद होना या बोध परक होना अलग बात है। निर्णय लेना कठिन होता है कि कविता उन्होंने बच्चों के लिए लिखी है, बड़ों के लिए, गुरुजन के लिए या अभिभावकों के लिए। एक उदाहरण याद आता है। कविता थी-
बस्ता भारी
मन है भारी
कर दो बस्ता हल्का
मन हो जाए फुलका।

मन कभी फुलका नहीं होता, इसे तीसरी पंक्ति के हल्का शब्द से जोडऩा पड़ेगा। फिर आप इसके दोनों अर्थ लेने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे कि बस्ता हल्का होते ही बच्चे का मन भी फुलके के समान हल्का-फुलका हो जाएगा। चार पंक्तियों की यह कविता एक निजी स्कूल के संचालक को इतनी पसंद आई कि उसने इसके पोस्टर छपवा कर सारे शहर में बंटवा दिये। अस्तु।
मंच की महारत तो दीनदयाल शर्मा को हासिल है ही। कवि सम्मेलन चाहे ग्रामीण क्षेत्र का हो या, चाहे शहरी क्षेत्र का। अपनी हास्य व्यंग्य कविताओं के साथ जब वे मंच पर पदार्पण करते हैं, तो जोरदार तालियों की गडग़ड़ाहट उनका भव्य स्वागत करती है।  फिर एक के बाद एक फरमाइशी कविताओं की झड़ी लग जाती है, जिन्हें बच्चे, बूढ़े, नौजवान सब एक सी एकाग्रता और तन्मयता से सुनते हैं-ठहाके लगाते हैं, आनंदित होते हैं।
 'टाबर टोल़ी' विगत सात वर्षों से अनवरत छप ही रही है। पूरी पत्रिका में  दीनदयाल शर्मा के बहुआयामी व्यक्तित्व की गहरी छाप तथा इनके पूरे परिवार के परिश्रम की मुंह बोलती तसवीर स्पष्ट झलकती है। इसीलिए अब यह मात्र बच्चों की ही पत्रिका नहीं रह गई है। द्वितीय वेतन श्रंृखला हिन्दी अध्यापक पद के लिए राजस्थान लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों की दृष्टि एक दिन टाबर टोल़ी पर पड़ गई, तो बोले-यह हमें मिल सकती है सर? मेरे मुंह से निकला-यह तो बच्चों की पत्रिका है।
नहीं सर, अशुद्धि संशोधन के रूप में इसमें शब्दों के शुद्ध रूप दे रखे हैं और सामान्यज्ञान के 100 प्रश्न भी। यह तो हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है सर। और वे सभी विद्यार्थी 50-50 रुपये वार्षिक शुल्क ले आए। अत: मैंने सभी का   वार्षिक शुल्क  भिजवाया, तो उन्हें बड़ी निश्चिंतता और संतुष्टि मिली।
कहना चाहिए कि दीनदयाल शर्मा केवल एक कवि, व्यंग्यकार या बाल साहित्यकार ही नहीं, अपितु अपने आपमें एक साहित्यिक अनुष्ठान, नये रचनाकारों के लिए प्रेरणापुंज और साहित्य मनीषियों के लिए एक चलता-फिरता सृजनधर्मी प्रतिष्ठान है। 

जनकराज पारीक,
29, मण्डी ब्लॉक, 
श्रीकरणपुर-335073
मोबाइल : 09414452728

(श्री पारीक जी वरिष्ठ कथाकार, कवि एवं गीतकार हैं। आपकी कथा कृति 'शिकार तथा अन्य कहानियां' अकादमी से पुरस्कृत है। काव्य कृति 'अब आगे सुनो...' और 'सूखा गांव' काफी चर्चित रही है। आप राजस्थान साहित्य अकादमी की सरस्वती सभा के सदस्य रहे हैं। आप 40 वर्षों तक शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद की सेवाएं देकर वर्तमान में स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। इन दिनों आप कुछ अस्वस्थ हैं।)




दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -13

बाल साहित्य सृजन की अनूठी शैली 
के रचनाकार : दीनदयाल शर्मा

आपका दीद हो जाए और हमारी ईद हो जाए। पिछले 7-8 सालों से एक मधुर वाणी कानों में मिश्री सी घोल रही है। जी हां, मैं परम श्रद्धेय दीनदयाल शर्मा जी की ही बात कर रहा हंू। जब इनसे फोन/मोबाइल पर बात होती है तो मिलने के लिए दिल बेचैन होकर तड़पने लगता है। अफसोस.... उनके  दर्शन (दीद) से आज तक महरूम हंू। मगर उनके द्वारा की गई हौसला अफजाई और मार्ग दर्शन से साहित्य रूपी गुलशन में फल फूल रहा हंू। 
श्री शर्मा के व्यक्तित्व एवं सृजन से कई साहित्यकार एवं कार्यकर्ता प्रभावित हुए हैं। आत्मा की आवाज़ तो यह है कि आज न केवल राजस्थान बल्कि सम्पूर्ण भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में ऐसे ज्ञानवान पुरुष के प्रकाश पुंज ने 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' को अभिनव दृष्टि से भारत वर्ष को आलोकित किया है। 
बाल जगत के सितारों में श्री शर्मा जी एक अलग ही सूर्य हैं। जिसकी विसरित किरणें बिलौरी कांच पर एकत्रित होती हैं, वह है-टाबर टोल़ी (बच्चों का अखबार) , जो विगत कई वर्षों से राष्ट्रीय स्तर के नवांकुर साहित्यकारों एवं काव्यकारों को संचरित करता है।
श्रीयुत् दीनदयाल शर्मा के अनेक आलेख विभिन्न संकलनों, स्मारिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं, जिनमें उनकी कल्पना, चेतना और मेधा के दर्शन होते हैं। आप  सफल पत्रकार, कवि, साहित्यकार व वक्ता होने के साथ-साथ गृहस्थ पति व पिता भी हैं। 

आप अपने सभी दायित्वों का निर्वहन कुशलता के साथ कर रहे हैं। आपने समाज चिंतकों, सृजनधर्मी विचारकों व प्रबुद्धजन के साथ मिलकर एक बेहतर समाज बनाने के लिए संभव प्रयास किए हैं। आपकी श्लाघनीय सक्रियता व बाल साहित्य सृजन की अनूठी शैली से अभिभूत कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपार हर्ष की अनुभूति करता हंू। समाज और साहित्य को समर्पित इस विराट व्यक्तित्व के धनी श्री शर्मा जी के लिए मेरी कलम का लिखना सूर्य को दीपक बताने जैसा है।

मेरी एक विनम्र कामना है कि  आपका यही सार्थक चिंतन व सामाजिक भागीदारी का विराट दृष्टिकोण बना रहे। आप यशस्वी जीवन व सुख समृद्धि के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहें, आने वाली लम्बी आयु में हिन्दी भाषा बाल साहित्य, समाज एवं देश की अनवरत सेवा करते रहेंगे। यही हमारी अंतस की शुभकामनाएं हैं।

अब्दुल समद राही 
पुत्र अब्दुल सत्तार हाजी रहीम बख्श, 
सिलावट मौहल्ला, ढाल की गली, 

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 12



वह तराशता रहा मुझे..........

''गुझिया की गाय'' और  ''नंगा पहाड़'' कहानियां प्रमोद से सुनी। कहानियों में दिए गए विचारों एवं सोच में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। ....प्रथम कहानी में मुझे लगा जैसे इसमें कुछ छूट रहा है। दूसरी कहानी अंत तक बांधे रही। पूरी समीक्षा मैं अलग से दंूगा। शुभकामनाएं..............। दीनदयाल शर्मा, 26.5.87
.......हनुमानगढ़ आ छ: साल हो चुके थे। शब्द की अर्थवत्ता और उसकी सत्ता के स्वभाव की पड़ताल जारी थी। गंावों का अंधविश्वास, पिछड़ापन और हीनता लेकर मैं शहर आया था, पर धीरे-धीरे ये सब चीजें मेरे दामन से स्वत: ही छूटती चली गई। क्योंकि शहर में मुझे आते ही कुछ करीने लोग मिल गए थे। रविदत्त मोहता, मायामृग, संजय माधो, नरेश विद्यार्थी, राजेश चड्ढा, ओम पुरोहित, महेश सन्तुष्ट, सीमान्त, अमित यायावर और दीनदयाल शर्मा.......।
अक्सर जब मैं कोई कहानी लिख लेता तो उसे दिखाने के लिए उतावला हो कर पूरे शहर में घूमता था। कभी रविदत्त मोहता के पास, कभी मायामृग के पास, कभी ओम पुरोहित के पास तो कभी दीनदयाल शर्मा के पास.... और फिर लिखवा लेता उनसे कहानी पर टिप्पणी। ये टिप्पणियां दर्शाती है कि अस्सी के दशक में हनुमानगढ़ क्षेत्र में साहित्य और समालोचना को लेकर कितनी गंभीर चिंताएं साझा होती थीं। हालांकि हममें से किसी के पास टू व्हीलर नहीं था। फिर भी दूरियां कभी आड़े नहीं आयी। चाहे पैदल हो या साइकिल। ऑटो रिक्शा हो या सिटी बस। हम लोग एक तड़प के साथ एक दूसरे तक पहुंच जाते थे। ओम जी दुर्गा कॉलोनी, रविदत्त पी.डब्ल्यु.डी. कॉलोनी, राजेश चड्ढा सैक्टर-12 तो दीनदयाल जी मक्कासर में रहते थे। फिर भी ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब हम एक-दूसरे से मिलते नहीं थे। उन दिनों हम लोगों ने एक दूजे को तराशना शुरू कर दिया। हम लोग अपनी रचनाओं पर जमकर दंगल करते..फिर उनको लेकर प्रकाशन की योजनाएं बनाते...मन्सूबे बांधते और कल्पना के यथार्थ में गोते लगाते.....।
उन्हीं दिनों ओम पुरोहित, दीनदयाल शर्मा और मैंने, मिलकर राजस्थान साहित्य परिषद् बनाई। हमारी अंगुलियों से हर वक्त स्याही टपकती रहती। हम लोग तै कर चुके थे कि हमें एक श्रेष्ठ साहित्यकार बनना है। चंूकि संस्था बनी तो कार्यक्रम भी हुए। परिचर्चा, नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, विमोचन, आंचलिक समारोह...देखते ही देखते हम लोग रामकुमार ओझा, करणीदान बारहठ, मोहन आलोक, मंगत बादल और जनकराज पारीक इत्यादि से गहरे तक जुड़ते चले गए और हनुमानगढ़ पूरे क्षेत्र में सबसे चर्चित जगह होता चला गया।
इन्हीं दिनों आया मेरा पहला कहानी संग्रह-सच तो ये है.....। संपर्क प्रकाशन से छपी यह पुस्तक लेने के लिए मैं और दीनदयाल जी दिल्ली गए। अर्थाभाव और कम जानकारियों की दुविधा के बावजूद दिल्ली जैसी जगह में उनका आत्मविश्वास मुझे आज भी प्रेरणा देता है। यों तो शहर में अक्सर उनसे मिलता था, लेकिन दिल्ली में जिन दीनदयाल शर्मा से मुला$कात हुई...वे एक दूसरे ही दीनदयाल थे। मुझे नहीं मालूम था कि वे मुझे लेकर इतने जिम्मेदार और पीड़ा उठाने वाले हैं। उनके काम करने की पद्धति और समर्पण मुझे आज भी अपने प्रत्येक दायित्व के निर्वाह में सहायता प्रदान करते हैं।
चाहे दिल्ली हो या हनुमानगढ़, बीकानेर हो या रावतसर... दीनदयाल शर्मा के हाथों से दया, करुणा, परोपकार, उदारता, सत्यता इत्यादि सद्गुण कभी नहीं छूटे बल्कि ये गुण इनमें इतनी सघनता से भराव लेते हैं कि आस पास का पूरा वातावरण हन देवीय गुणों से स्पंदित हो जाता है..... कितने ही बच्चों को किताबें दीं, कितने ही लेखकों को सहायता दी, कितने ही घायलों की सेवा की, कितने ही पीडि़तों के लिए आंसू बहाए....ये सब इतना विस्तार चाहते हैं कि उन पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। लेकिन अगर संक्षेप में कहंू तो बात-बात पर भावुक हो जाने वाले दीनदयाल शर्मा के पास वह हृदय है, जिसकी कसमें खायी जा सके... फिर भी ऐसे बहुत से मौके आए जब हम दोस्तों में टक्कर हुई। कभी दीनदयाल जी नाराज़, कभी मैं तो कभी ओमजी। हम एक दूसरे की जमकर आलोचना करते और सच झूठ का सारा नतीजा निकलने तक मैदान में डटे रहते। इस बीच कभी कभी हम लोग कई-कई दिनों तक एक -दूसरे से नाराज़ रहते.... लेकिन हमारा प्यार कभी कम नहीं हुआ..... नाराज़गी की बात चली है तो एक किस्सा.....।
जुलाई 1986 में दीनदयाल जी मक्कासर से हनुमानगढ़ आ गए। सैक्टर 12 में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगे। एक दोपहर मैं और ओमजी पहुचे उनके कमरे पर। दीनदयाल जी नदारद। बड़ा सारा ताला। हमने निर्णय किया कि  इतनी दूर से चलकर आए हैं वापिस तो नहीं जाएंगे...यहीं इन्तज़ार करते हैं और हमने कमरे का ताला तोड़ा...और भीतर जाकर बैठ गए जमकर। कागज खराब किए ...हलुवा बनाकर खाया...गीत गाए...और जब दीनदयाल जी आए तो बहुत गुस्सा हुए और बहुत दिनों तक गुस्से में रहे....पता नहीं वह क्या वजह रही होगी कि हमारे भीतर परमात्मा ने ऐसी नजदीकियां पैदा की...लेकिन जहां तक मैं समझता हंू ये सब घटनाएं एक दूसरे को तराशने के लिए थीं.....। उस घटना से सबक लेकर फिर मैंने कभी दीनदयाल जी का दिल नहीं दुखाया और उनके प्रति ऐसा कोई काम नहीं किया जिसमें उनकी आस्था नहीं...।
जहां तक उनकी आस्थाओं का प्रश्न है वे मनुष्य के अस्तित्व पर टिकी हैं। दीनदयाल शर्मा मनुष्य के आकार प्रकार में किसी भी तरह की कमी को स्वीकार नहीं करते हैं बल्कि हमेशा पूरा देखना चाहते हैं। उनका साहित्य मनुष्य और मनुष्यता में विश्वास का साहित्य है। वे कहीं अति सरल हृदय के साथ बच्चों के लिए कविताएं और कहानियां लिखते हैं तो कहीं माथे पर भृकुटि तानकर व्यंग्य कहते हैं। कहीं वे रेडियो नाटक लेकर हाजि़र हो जाते हैं...कहीं वे चुटकुले सुनाने लगते हैं... सचमुच ऐसा भरा-भरा सा निगर आदमी समाज के लिए उपलब्धि है। हालांकि यह भरा-भरा सा आदमी तब बहुत खिन्न और तिड़का हुआ  आदमी बन जाता है...जब कोई उनके साथ विश्वासघात करे। तौबा... फिर उनके आंसुओं और उल्हानों का हिसाब कौन करे....। शायद इसीलिए वे अपने हर विश्वास को पूरी तरह से निभाते हैं। और यही उनकी सफलता का राज है। मुझे खुशी है कि मैंने अपने स्वभाव की मूर्ति को दीनदयाल जी सरीखे दोस्तों के बीच तराशा है। ऐसे दोस्त...और अब तो मेरे जीजा भी... को अपने साथ जुड़ा देखकर मुझे ईश्वर में विश्वास करने को बाधित करता है। इति। 

प्रमोदकुमार शर्मा, वरिष्ठ हिन्दी उद्घोषक, 
आकाशवाणी, बीकानेर, राजस्थान , मो. 09414506766