Tuesday, June 8, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 11







जितेन्द्रकुमार सोनी 'प्रयास' गत वर्ष आर.ए.एस.पुरुष वर्ग में टॉपर...और इस वर्ष आई. ए. एस. में   29वीं  रैंक से चयनित..)



भाई दीद जी का मैंने खूब नाम सुना था मगर मिलने का पहला मौका  इनके अखबार 'टाबर टोल़ी' के लोकार्पण पर मिला। बड़ा ही स्नेहिल स्वभाव जिसमें रत्ती भर भी अपने नाम और यश की तुष्टि की या अहंकार की तलाश नहीं थी। शक्ल से मालूम होता है कि इन जैसा व्यक्तित्व केवल बाल साहित्यकार ही हो सकता है। वैसे भी बड़ों के लिए लिखने की तुलना में बच्चों के लिए और उन पर लिखना मुश्किल है और अगर ऐसे में दीद जी उन पर लिखते हैं तो निस्संदेह ही उनमें बाल मन को जानने की कुव्वत है। बच्चे यानी सहज, सरल, सरस और पारदर्शी और इनके जैसे ही इनके कलम चितेरे, हां, दीद जी ऐसे ही तो हैं। इनका 'टाबर टोल़ी' आता गया और मुलाकातें बढ़ाता गया और जितना मैं इनको मिलता गया उतना ही इनका मुरीद होता गया। 
राजस्थानी और हिंदी पर समानांतर पकड़ रखने वाले दीद साहब से जुड़ी एक बात कहना जरूरी है कि एक बार इनको मैंने एक रचना भेजी जिसमें मैंने 'यानि' लिखा था। एक दो दिन के बाद इनका फोन आया और बड़े ही दोस्ताना तरीके से मुझे बताया कि 'यानी' ऐसे लिखते हैं। सोचिये कि आज के दौर में सच्चा हितैषी बनकर कौन किसकी गलती बताता है। लोग तो तलाश करते हैं कि सामने वाला कोई गलती करे और हम उस पर अंगुली उठा सकें और ऐसे में इनका संशोधन इनकी छवि को और निखार गया।
   
अगली यादगार मुलाकात इनके आवास पर हुई और मौका था मेरी पहली काव्य कृति 'उम्मीदों के चिराग' के विमोचन का.... जिसका प्राक्कथन भी इन्होंने ही लिखकर दिया था। यहां यह स्वीकार करना जरूरी है पहले मैंने मेरी किताब का नाम 'पाप की गागर' सोचा था जो कि नकारात्मक प्रतीक था। इन्होंने कहा कि यह नाम आपकी छवि और कविताओं पर जंचता नहीं है। मुझे इनकी राय पसंद आई और फिर मैंने 'उम्मीदों के चिराग' रखा और बाद में इस नाम की मुझे भरपूर प्रशंसा मिली, पर इसके वास्तविक हकदार तो दीद जी ही हैं, उसी किताब का विमोचन अब भला मैं किसी और से कैसे करवाता? इसीलिए इनके आवास पर राजस्थानी कथाकार सत्यनारायण भाई व कवि नरेश मेहन और मेरे पिताजी आदि कई जने एकत्रित हुए व दीद साहब ने मेरी पहली किताब का विमोचन किया। 
समय-समय पर ये हमेशा अपनी सलाहों से मुझे परिष्कृत करते रहते हैं। कहां होता है....आज की दुनिया में किसी के बारे में इस तरह की संवेदनाएं रखना.......सफेद खून के इस दौर में दीद साहब ने हमेशा मुझे साहित्य की समझ से परिचित करवाया है। 'टाबर टोल़ी' को मैंने मेरे स्कूल के पुस्तकालय के लिए मंगवाया था। बच्चे सदैव इसका इंतज़ार करते...लगभग बीस से ज्यादा नेठराना के विद्यार्थियों की रचनाओं को स्थान देकर इन्होंने इन बच्चों का हौसला बढ़ाया है।
    
मेरे आर.ए.एस. में चयन होने पर..... वक्त निकाल कर ये मेरे मूल गांव धन्नासर आए तथा परिवार वालों से मिले और अपने मधुर स्वभाव से सबका मन जीत लिया। मैं और कुछ नहीं जानता..... सिर्फ ये एक पंक्ति है मेरे पास....

कल तक हज़ारों रंग के 
फानूस थे जहां....
झाड़ उनकी कब्र पर हैं 
और निशान कुछ नहीं......।
दीद साहब इस अवधारणा को मन में बसा चुके हैं इसीलिए स्वंसिद्धि की बजाय इनका प्रयास साथियों को आगे लाने में ही रहता है क्योंकि इन्हें पता है कि यही तरीका है किसी के मन में सदा के लिए बसे रहने का। हर वक्त सिखाते रहने की ललक और हर बात को सरल तरीके से कहना इनकी विशिष्ट कला है। मैंने इनसे बहुत कुछ सीखा है और आशा है कि इनका स्नेहिल आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहेगा।

जितेन्द्रकुमार सोनी 'प्रयास'
रावतसर, जिला: हनुमानगढ़, राज.

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 10


दीनदयाल शर्मा : बालकों 
के लिए समर्पित व्यक्तित्व

दीपक की भांति संसार में 
जलता है कोई कोई
वृक्ष की भांति संसार में 
फलता है कोई कोई
यूं तो आदर्श की राह पर 
चलने को कहते रहते हैं सभी,
पर इन राहों पर चलते हैं 
'दीद' से कोई कोई।
बाल मनोविज्ञान के ज्ञाता रचनाकार व सबसे विनम्र स्वभाव से मिल जाने वाले इन्सान दीनदयाल शर्मा पर ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं। श्री शर्मा के साथ शिक्षा की विभिन्न लेखन कार्यशालाओं के माध्यम से जुडऩे का अवसर मिला। हंसमुख एवं मिलनसार व्यक्तित्व से अपनी अलग पहचान शीघ्र ही बना लेता है, कलम के धनी इस रचनाकार ने बाल साहित्य में कुछ अलग करने, देशभक्ति की अविरल धाराएं बहाते हुए, अपने कार्य के प्रति निष्ठा को जिस रूप में आगे बिखेरा कि हर सदन, मानस पटल, साहित्यकारों, रचनाकारों के मध्य वे अपनी अमिट छाप छोडऩे में सफल रहे हैं। साहित्य ऐसा हो जो हमें विचार करने पर बाध्य करे, बच्चों में जिज्ञासा एवं आत्मविश्वास की वृद्धि करे। 
श्री शर्मा की लेखनी ऐसी ही अमृतवर्षा करने को आतुर रहती है। आप द्वारा लिखी गई आधुनिक बाल कहानियां बच्चों को भारतीय संस्कृति से न केवल प्रेम करना सिखाती है वरन् उनमें नई सोच पैदा करने की क्षमता को भी आगे बढ़ाती है। युवा पीढ़ी को सीख देने वाली रचनाएं, छोटी बाल कविताएं व संस्कारों से परिपूर्ण बाल कहानियां आधुनिक युग की महत्ती आवश्यकताएं हैं, रचनाकारों को सरस्वती के मान सम्मान को प्रमुखता देने की बात करते हुए आप कहते हैं कि ''हमें वर्तमान के अश्लील, फूहड़ साहित्य का भरसक विरोध करते हुए, बालकों को नैतिक मूल्य एवं अपनी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करने वाले बीजों का संग्रहण करने का पाठ सिखाना चाहिए।
व्यंग्य वह विधा है जो साहित्यिक क्षेत्र में कलम को तलवार से भी तेज धार वाला हथियार साबित कर देती है, श्री शर्मा को इस विधा में भी महारत हासिल है। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले सीरियल जो हमारे सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, पर व्यंग्यात्मक लहजे में सीधा सा आपका उत्तर ''आजकल की नानी, बच्चों को नहीं सुनाती कहानी'' क्योंकि बच्चे व बड़े न चाहते हुए भी टी.वी. के चिपके रहते हैं। क्या हमारी सांस्कृतिक धरोहर पाश्चात्य सांस्कृतिक हमलों से छिन्न-भिन्न हो जाएगी, इस प्रश्र का उत्तर भी जिस सटीकता से आपने दिया है उससे हमें इस देश में जन्म लेने के गौरव को और भी अधिक प्रतिपुष्ट कर दिया। आपने कहा था-

मां अपनी ममता को 
छोड़ नहीं सकती।
बाहुबली की भुजाएं 
नदियां मोड़ नहीं सकती।।
संस्कृति की दीवार 
इतनी समृद्ध है हमारी,
फिरंगियों की ताकत 
इसे तोड़ नहीं सकती।।
सामाजिक कत्र्तव्यों को निभाते हुए व राजकीय सेवा में पूर्ण निष्ठा से आपका समर्पण आधुनिक युग में भौतिकता की अन्धी दौड़ में समाज में एक दीपक की भांति रोशनी बिखेरता हुआ सही राह दिखाने वाला प्रतीत हो रहा है, आज जब अधिकांश व्यक्ति किसी अच्छे कार्य को करने के लिए 'समय नहीं है' का बहाना लिए टालना चाहते हैं आपके लिए यह कहना युक्ति युक्त होगा कि-

अपने लिए जीए तो क्या जीए।
तूं जी ए दिल ज़माने के लिए।।
छोटे बच्चों के लिए ढेर सारा प्यार एवं अनमोल रचनाएं लेकर हर समय अपनी उपस्थिति देने वाले इस व्यक्तित्व को सादर नमन एवं उज्ज्वल मंगलमय जीवन हेतु शुभकामनाएं।

सुनील कुमार डीडवानिया, 

Sunday, June 6, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 9




















तुम बच्चों के प्यारे हो

नव उल्लास, विश्वास लेकर,
शिक्षक दिवस आज है आया।
अरुणिम सूरज की किरणों ने,
अवनि पर प्रकाश फैलाया।।

भोर का सूरज उदित हुआ,
लिए हुए इक नूतन लाली।
श्रद्धा दीप ले आई परियां,
संग लायी पूजन की थाली।।

मंगल गान का दौर चला है,
कभी नहीं जो थमने वाला।
तुम ही हो वो कुशल-निर्माता,
जिसने सबको सांचों में ढाला।।

तराश-तराश पाषाणों को,
तुम देते हो सुधड़ आकार।
तलाश-तलाश प्रतिभाओं को,
तुम देते हो उन्हें निखार।।

कर्मयोग के सुन्दर पथ पर,
तुम आगे चलने वाले हो।
भाग्य की रेखाओं को तुम,
कर्म से बदलने वाले हो।।

भाव-विचार के सुमनों से,
पुष्पित-पल्लवित उपवन है।
और उन्हीं की सौरभ से,
सुरभित सबका जीवन है।।

थामी अंगुली जिनकी तुमने,
वही आगे चल पाते हैं।
शब्द दिये थे उनको तुमने,
तभी तो कुछ कह पाते हैं।।

चाचा नेहरू की ही भांति,
तुम बच्चों के प्यारे हो।
भावों से हो ओत-प्रोत तुम,
रचना-कौशल में न्यारे हो।।

आज के दिन बस यही दुआ है,
खुशियों का तुम्हें वरदान मिले।
हर मन्जिल पर राज तुम्हारा,
वैभव मिले और मान मिले।।

साहित्य के आकाश में गुरुवर,
सदा चमकना बन के दिनकर।
सबके पथ को उजला करना,
जलते रहना दीपक बनकर।।

5 सितम्बर, 2004 के दिन

श्री दीनदयाल शर्मा जी को
सादर समर्पित कविता

प्रस्तुतकर्ता :
कमला बैरवा, जयपुर

मोबाइल : 9772615160

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 8















दीनदयाल शर्मा शिक्षक और पत्रकार 
अर्थात् सोने पर सुहागा

शिक्षक जो बच्चों को ज्ञान देता है, वह स्वभावत: विनम्र और मननशील होता है। वह देश के भावी नागरिक तैयार करता है। यदि वह पत्रकार भी हो तो उसकी पैठ समाज और देश की हलचलों में भी हो जाती है और वह देश तथा समाज का प्रहरी और निर्माता बन जाने की राह का राही भी हो जाता है। हुई न सोने पर सुहागे वाली बात।

श्री दीनदयाल शर्मा मूलत: शिक्षक हैं। उनका कार्य क्षेत्र पाठशाला तक सिमिट कर रह जाता यदि उनमें समाज का सेवक बनकर काम करने की लगन न होती। तब उनसे मेरी भेंट भी कैसे होती। मेरा निवास जयपुर और उनका हनुमानगढ़ जं.। कुछ मैं चला अपने क्षेत्र से बाहर, लेखक बनने का सपना लेकर, कुछ उन्हें ललक हुई लेखन कला पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ाने की। तब संयोग बना कि हम दोनों पहली बार वस्त्रनगरी भीलवाड़ा में 'बालवाटिका' पत्रिका के एक साहित्यिक आयोजन में मिले और वह परिचय परवान चढ़ता गया।

कई वर्ष बाद मुझे दीनदयाल जी से दोबारा पिलानी के एक बालसाहित्य कार्यक्रम में दो दिन के लिए मिलना हुआ। उसमें हिन्दी बाल जगत के कई दिग्गज लेखक और विद्वान पधारे थे, जैसे कानपुर से बाल साहित्य के पुरोधा डॉ.श्रीकृष्णचन्द्र तिवारी 'राष्ट्रबन्धु' और दिल्ली से नन्दन के संपादक डॉ.जयप्रकाश भारती जी। भीलवाड़ा से भी कई साहित्यकार बन्धु इस सम्मेलन में भागीदारी के लिए आए थे। उनमें डॉ. भैरूंलाल गर्ग, संपादक, बाल वाटिका भी थे। उस समय भाई दीनदयाल जी को अपने उत्कृष्ट बाल साहित्य सृजन कर्म के लिए भारतीय बाल कल्याण संस्थान, कानपुर की ओर से सम्मानित किया जाना था।

श्री दीनदयाल जी से समय-समय पर मिलने का सिलसिला चलता रहा और एक बार 'बाल गंगा', जयपुर के एक स्मृति सम्मान समारोह में पधारकर उन्होंने मुझे आनन्दित किया। वे वर्ष 2008 , 4 अगस्त को इलाहाबाद में हुए 'मीरा स्मृति सम्मान समारोह' में भी मुझे मिले, जो साहित्य भंडार, प्रयाग के एक बड़े प्रकाशक श्री सतीशचन्द्र अग्रवाल ने अपनी दिवंगत पत्नी पुण्यात्मा मीरा अग्रवाल की स्मृति में डॉ.राष्ट्रबन्धु की संस्था बाल कल्याण संस्थान, कानपुर के सहयोग से 4 अगस्त 2008 को आयोजित किया था। उल्लेखनीय है कि उस सम्मेलन में बाल काव्य कृति 'बाल गीत गंगा' तथा मीरा स्मृति प्रथम सम्मान पुरस्कार मुझे प्रदान किया था। उस समय श्री दीनदयाल शर्मा (मानद साहित्य संपादक ,'टाबर टोली' ) ने पाक्षिक अखबार 'टाबर टोली' की वहां खूब सारी प्रतियां बंटवाई। जिसे देशभर से पधारे साहित्यकारों-पत्रकारों ने सराहा।

श्री शर्मा की प्रगति का रथ उनके 'टाबर टोली' के नियमित प्रकाशन के साथ निरंतर अग्रसर है। इनमें शिक्षक, लेखक, संपादक और प्रकाशक के साथ-साथ अच्छे समीक्षक के गुण से मुझे प्रसन्नता होती है। जब मैं उनके अखबार में अपनी कविताएं और पुस्तक समीक्षाएं छपे हुए देखता हूँ। यह पाक्षिक अखबार अब बच्चों की मैगज़ीन का रूप ले चुका है। इसमें कविताएं, कहानियां, चुटकुले, पहेलियां, बूझो तो जाने, दिमागी कसरत, शुद्ध शब्द लेखन आदि स्तंभ बच्चों का भरपूर मनोरंजन करने क लिए पर्याप्त बालोपयोगी सामग्र प्रस्तुत करते हैं। इस कारण 'टाबर टोल़ी' समाज, शिक्षण संस्थाओं, पंचायतों और ग्राम्य विकास कार्यकर्ताओं यानी सभी से गहराई से जुड़ गया है। इसका श्रेय भाई दीनदयालजी के प्रतिभावान एवं कर्मठ व्यक्तित्व को है। मैं उनकी निरंतर प्रगति और समृद्धि की कामना करता हूँ

सीताराम गुप्त, जयपुर,
दिनांक : 26/2/2010

मोबाइल : 09414770139


दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 7





















सरल और मासूम शिशु की भांति
एक निश्छल आभा के धनी दीनदयाल शर्मा

जी हां, बाल साहित्याकाश का एक ऐसा सूरज जिसे हम दीनदयाल जी शर्मा के नाम से जानते हैं। दीनदयाल जी जैसे सुप्रबुद्ध तथा सशक्त व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी कहना या लिखना मेरे लिए बड़ा ही चुनौती भरा कार्य रहा है। क्योंकि मेरे पास इतने शब्द ही नहीं है जिनके द्वारा मैं अपने मनोभावों को व्यक्त कर सकूं। इसके अलावा मन एक और उलझन में फंस गया कि सर्वप्रथम कौनसी बात लिखूं, चयन नहीं कर पा रही हूं। मन के जितने भी भाव हैं, उन्हें सर्वप्रथम ही लिखना चाहती हूं और ऐसा संभव है नहीं।

बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा का नाम किसी के लिए भी नया नहीं है। जिन विद्वान साहित्यकारों, कवियों, साहित्य/संस्कृति को मैंने अपने जीवन की साध माना है उनमें बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा का नाम सर्वप्रथम आता है। जसाना में जन्मे व पले-बढ़े श्री शर्मा जी आज उम्र में मेरे पापा के हमउम्र हैं। लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता, क्योंकि जहां तक मैं जानती हूं'' ये तो बच्चे हैं। क्योंकि ये हृदय से एकदम बच्चे की तरह सरल और निश्छल हैं। मैंने महसूस किया है कि उनमें आज भी एक बच्चे का दिल धड़कता है, और इसीलिए मैंने उन्हें बच्चा कहा है। हर वक्त इनके मुखमण्डल पर एक सरल और मासूम शिशु की भांति एक निश्छल आभा विराजमान रहती है जो किसी के भी मन को मोह लेने में सक्षम है। साथ ही एक खास बात और जो मेरे अंतस में गहरे तक उतरती है, ये बच्चों के साथ बच्चे और बड़ों के साथ बड़े हो जाते हैं। विषय हास परिहास का चल रहा हो तो आप दिल खोलकर हंसते-हंसाते हैं और यदि विषय गंभीर हो तो इनके चेहरे पर सागर सी गहराई झलकती है। साथ ही इनकी स्पष्टवादिता हरेक के मन में गहरे तक उतर जाती है।

सामान्य कद-काठी के साथ-साथ ये असाधारण व बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। अपनी अनुपम विचार शक्ति, प्रखर बुद्धि और ओजस्विता से सबको चकित कर देते हैं। इनकी हंसी अकृत्रिम है। इनके समक्ष बैठने के पश्चात परिचय का अभाव नहीं खलता। हर एक से मुक्त हृदय से मिलना-जुलना इनके स्वभाव में शामिल है। मालूम होता है कि श्री शर्मा जी किसी का भी दिल नहीं तोडऩा चाहते। इनका मुखर व्यक्तित्व हर अनजान को अपना बनाने का सामथ्र्य रखता है। आपके चेहरे पर दृढ़ निश्चयी होने के भावों के साथ ही संतोष के भाव झलकते हैं तथा पोशाक में सादगी है। इनके उठने बैठने, चलने-फिरने को देखकर पता चलता है कि जीवन में सादगी प्रिय है। कुछ और बातों पर है, जिनमें साहित्य पत्रकारिता, अध्यापन व बीसियों किस्म की अन्य सामाजिक जिम्मेदारियां शामिल हैं।

जिस सभा में श्री दीनदयाल जी हों वहां उदासी एवं हताशा नहीं ठहरती। ऊर्जा का निरंतर प्रवाह इनके व्यक्तित्व में दिखाई देता है। जो इनके सानिध्य में आने वालों को भी ऊर्जावान बना देता है। ये जहां भी होते हैं, अपने वात्सल्य से सभी को कायल करने से जान पड़ते हैं। आप हैं ही कुछ ऐसे की आपकी मधुर वाणी सुनने वालों के कानों में मधुरस घोलती सी जान पड़ती है।

श्री दीनदयाल जी का पारिवारिक वातावरण भी संस्कारित एवं आत्मीयतापूर्ण है। वहां जाकर कोई भी अपने अजनबीपन को बनाये नहीं रख सकता। अतिथि की वहां खैर नहीं है, क्योंकि इस परिवार के द्वारा निस्वार्थ भाव से की गई खातिरदारी अतिथि को एकदम फलक पर बैठा देती है। मुझे कई बार इस परिवार से मिलने का सौभाग्य मिला है। बनावट से कोसों दूर यह परिवार भारतीय संस्कृति का सजीव उदाहरण है। साहित्य मानव मन का ही भाव साम्राज्य होता है। जो बाहरी संसार हम देख रहे हैं उससे कहीं अधिक विस्तृत जगत हमारे मन में स्थित है। आवश्यकता होती है मन पर से अविचार का कोहरा छंटने की और श्री शर्मा जी से तो यह कोहरा कोसों दूर तक दिखाई ही नहीं देता।

आज जब सब और अंग्रेजी भाषा और सभ्यता की दुहाई दी जा रही है ऐसे समय में अपनी मातृभाषा में बाल मन को साहित्य के माध्यम से शिक्षित और संस्कारित करने का प्रयास श्री शर्मा जी कर रहे हैं वह अपने आप में अद्भुत है। शास्त्रों में कहा गया है कि सृष्टि की रचना शब्द से हुई है। उसी शब्द ब्रह्मा की उपासना साहित्यकार अपनी-अपनी शैली में करते हैं। सरस्वती पुत्र अपनी लोकोत्तर प्रतिभा के द्वारा एक शब्द संसार की रचना करता है जो कि मानवीय समस्याओं को स्पष्ट रूप से उभारता है। नामरूपात्मकं विश्वं यदिदं दृश्यते द्विधा। तत्राघस्य कविर्वेधा, द्वितीयस्य चतुर्मुख:।। अर्थात् नाम और रूपात्मकं जो दो प्रकार का यह संसार दीख प्रड़ता है, उसमें से आदि अर्थात् नामात्मक जगत का निर्माणकर्ता कवि है और रूपात्मक जगत का निर्माणकर्ता ब्रह्मा है। इसी प्रकार श्री दीनदयाल शर्मा शब्द संसार की रचना करके भावी पीढ़ी को संस्कारित करने में प्राणपण से लगे हैं।

हिन्दी और राजस्थानी भाषा में आपका रचनाकर्म विविध खूबियों को संजोये हुए है। आपने अपने काव्य में बाल मनोविज्ञान को बहुत ही निकट से समझा है। बाल मन की जो समस्याएं सामान्य व्यक्ति को स्पष्ट नहीं हो पाती, वो आपके काव्य में मुखर हो उठती है। बाल साहित्य तीर्थ के महायात्री व शब्दयोगी श्री शर्मा जी ने आज बाल साहित्य को उस मुकाम पर पहुंचाया है जहां हम उनके बाल साहित्य पर गर्व कर सकते हैं। जीवन के अच्छे और बुरे दोनों रूपों का आपको गहरा अनुभव है और अहसास भी। आपके अनुभवों की कोई सीमा नहीं है। बाल जीवन से जुड़ी बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी चीज आपकी कलम का निशाना होती है और जहां तक मैं जानती हूं,

ये सिर्फ लिखते नहीं, तन्मय होकर लिखते हैं, जीते हैं उसे। महसूस करते हैं, डूबते हैं उसमें। तभी तो सच्चा साहित्य मोती निकालकर लाये हैं हमारे सामने। वैसे भी मोती तो गोताखोर ही निकालते हैं भीगने से डरने वाले नहीं। यशस्वी बाल साहित्य पाठक को अपने नजदीक लाता है। बचपन के सामान्य अनुभव और अनुभूतियों से कैसे सार्थक और पठनीय साहित्य लिखा जा सकता है, इस तथ्य को श्री शर्मा जी के बाल साहित्य में स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। आपके साहित्य में बाल जीवन के व्यापक चित्र दिखाई देते हैं जो पाठक दृष्टि को चिन्तनशील बनाते हैं। आपके काव्य में हास्य के साथ-साथ व्यंग्य का चुटिलापन भी रहता है जो कि पाठक या श्रोता के हृदय को झकझोरता है। देश एवं समाज की दुर्दशा के बारे में सोचने को विवश करता है।

आपके बहुत से व्यंग्य शिक्षक वर्ग की कमजोरियों और अकर्मण्यता को लेकर हैं जो सिद्ध करते हैं कि आप बालकों की शिक्षा को लेकर कितने गंभीर है। श्री दीनदयाल जी ग्रामीण और शहरी जीवन से गहरा सरोकार रखते हैं इसलिए आपके साहित्य में ग्रामीण और शहरी जीवन की सभी समस्याओं, विडम्बनाओं का प्रामाणिक लेखा-जोखा मिलता है। आपका बाल साहित्य ठोस यथार्थ के धरातल पर खड़ा हुआ दिखाई देता है। जिसमें कोरी काल्पनिक उड़ान की कोई गुंजाइश नहीं है।

आप कवि हैं, लेखक हैं, पत्रकार हैं और साथ ही एक अध्यापक भी हैं लेकिन इन सबसे पहले आप एक जागरुक समाज सेवक हैं। आपका बाल साहित्य बच्चों और समाज के लिए मनमोहक उपहार है। बाल साहित्य सृजन आपकी तपस्या है, साधना है और इस साधना में आपका समर्पण भाव अभिनंदनीय है। इसी समर्पण भाव से आपने हिन्दी और राजस्थानी भाषा में बाल साहित्य को पूरी लगन और निष्ठा से प्रस्तुत किया है जिसमें जीवन के विभिन्न रंग अपनी सहजता और सरलता से प्रत्येक पाठक को लुभाने में सक्षम है। आपके बाल साहित्य में बाल मन की भावात्मक सुन्दरता के साथ-साथ कम शब्दों में भावों की अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यंजित हुई है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी और समाज सेवक श्री दीनदयाल जी ने पत्रकारिता के कार्य से भी समाज सेवा का बीड़ा उठाकर इस कार्य का सुन्दर ढंग से निर्वाह किया है। 'टाबर टोल़ी' पाक्षिक तथा 'कानिया मानिया कुर्र' त्रैमासिक जैसे पत्रों में आप दैनन्दिन समाचारों के साथ-साथ उत्कृष्ट कविताओं, कहानियों व अन्य साहित्यिक प्रकाशन भी करते हें, जिससे नवोदित प्रतिभाओं को राजस्थानी, हिन्दी लेखन का भरपूर अवसर आप उपलब्ध करा रहे हैं। जो कि साहित्यिक उत्थान में एक सार्थक प्रयत्न है। मैंने साहित्य के प्रकाश पुंज श्री दीनदयाल जी के बारे में बहुत सुना, पढ़ा और जाना। परन्तु स्थिति एकदम वैसी ही है जैसी भूषण कवि के समक्ष आयी- ''साहू को सराहौ के सराहौ छत्रसाल को।''

मैं भी किसकी सराहना करूं? जहां इनका साहित्य भावों के भोलेपन से युक्त है वहीं इनके स्वभाव की दृढ़ता मेरे मन को गहराइयों तक स्पर्श करती है। श्री शर्मा जी सिर्फ लिखते ही नहीं, उसे जीते भी हैं। सिर्फ छूते नहीं महसूस करते हैं। सिर्फ देखते नहीं गौर करते हैं। सदा मुस्कुराना और सबको प्यार करना, गुणीजन का सम्मान पाना, बच्चों के दिल में रहना और सच्चे आलोचकों की स्वीकृति पाना, आदि बातें आपके स्वभाव में शामिल हैं। साथ ही आप खूबसूरती की सराहना करते हैं दूसरों में खूबियां तलाशते हैं और बिना किसी उम्मीद के दूसरों के लिए खुद को अर्पित कर देते हैं। आपके इन्हीं गुणों के बारे में सोचकर मेरा अन्र्तमन आलोकित हो उठता है।

मां सरस्वती की कृपा आप पर हमेशा यूं ही बनी रहे तथा आप अपने अनुभव, चिन्तन आत्मीयता और समर्पण से बाल साहित्य जगत को अपनी लेखनी द्वारा समृद्ध करते रहें तथा आपका आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ बना रहे। इसी आशा और आपके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की मंगलकामनाओं के साथ।

कृष्णा जांगिड़ 'कीर्ति', जसाना
मोबाइल : 08003355965







बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार...
Edition : 16 - 31 March , 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 6















दीनदयाल शर्मा के साहित्य में अनूठे प्रयोग

बिना ज्ञान, कौशल एवं लगन के साहित्य लिखना मुश्किल है। साहित्य वही लिख सकता है जिसे अच्छे और बुरे की परख हो। समाज में जो घटता है, वही साहित्यकार देखता है, भोगता है, और उसे अनुभव भी करता है। साहित्य समाज का वह आइना है जो साफ दिखाता है। उसमें छल-कपट नहीं होता है। जब साहित्यकार की पैनी दृष्टि बाल साहित्य पर भी जाती है तो लगता है उसने बहुत कुछ देख लिया है। अगर उसे कलमबद्ध कर दिया जाए और समाज के सामने पेश कर दिया जाए तो लगता है साहित्यकार ने अपना फर्ज ईमानदारी से निभाया है।


इसी श्रृंखला के साहित्यकार हैं, श्री दीनदयाल शर्मा। इन्होंने हर तरह का साहित्य लिखा है। चाहे कहानी, कविता एवं व्यंग्य हो, नाटक हो और चाहे बच्चों के लिए कलम चलानी हो, वे अलग से दिखते हैं। इन्होंने अपने संग्रहों में अनेक प्रयोग किए हैं। इतना कहना पर्याप्त नहीं है कि इन्होंने बच्चों को ज्ञान आधुनिक युग में अपने बाल साहित्य के जरिए एक ऐसा संदेश दिया है जिसके जरिए बच्चे राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका अच्छी तरह निभा सकते हैं। 


मुझे इनका व्यंग्य संग्रह 'सारी खुदाई एक तरफ' पढऩे को मिला। कितनी करारी चोट छिपी है उसमें, पढ़कर पाठक सोचने पर विवश होता है। 'भविष्यफल का चक्कर', 'बहुत पछताए मेहमान बनकर', 'खूबसूरत बनने की चाह' जैसे व्यंग्यों में ऐसी चोट है जो दिल को छूती है। इतना ही नहीं, ऐसे व्यक्तियों को सुधारने में अपनी प्रभावी भूमिका निभानी है जो अंधविश्वासों, मेहमानबाजी और आज के सौंदर्य-प्रसाधनों के शिकार हैं। इस संग्रह के अन्य व्यंग्य 'भांति-भांति के लोग', 'कुत्ता पालिए', 'यदि मैं होता जन नेता', 'रोडवेज की आत्मकथा' एवं 'देख कबीरा रोया' आज की व्यवस्था पर चोट तो करती ही हैं साथ में सुधार का भी संदेश देने में सक्षम है। करीब सोलह वर्ष पहले छपा यह व्यंग्य संग्रह आज भी हर दिन हमें सोचने को मजबूर करता रहता है। इनका बाल साहित्य जैसा कि ऊपर कहा है, बच्चों के लिए हमेशा प्रासंगिक रहेगा।

कृति 'पापा झूठ नहीं बोलते' की छ: बाल कहानियों में 'पश्चाताप के आंसू' झकझोरती है पश्चाताप करने को और अनूठा संदेश देती है जिसमें पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। बाल साहित्य पर वास्तव में एक अनूठी पुस्तक कई दिनों बाद पढऩे को मिली। दीनदयाल शर्मा की एक और कृति 'चिंटू-पिंटू की सूझ' वास्तव में एक लाजवाब कृति है। राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत इस कृति की सभी कहानियां जहां बच्चों को अच्छे नागरिक बनने की प्रेरणा देती हैं वहीं उनके व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक होने में विशेष योगदान देती है। 'लोमड़ी की सूझ' एवं 'मोर की जिद्द' जैसी कहानियों में अनूठे प्रयोग किए गए हैं।

ज्यों-ज्यों शिक्षा पद्धति बदलती गई, कान्वेंट एवं पब्लिक स्कूलों में वृद्धि होती गई और पढ़ाने के ढांचे में भी परिवर्तन आता गया। बच्चे का बस्ता भारी होता गया। इसी आशय को लेकर श्री शर्मा ने कावय के रूप में 'कर दो बस्ता हल्का' नाम से एक और कृति लिखी। इनकी ये पक्तियां ''बस्ता भारी, मन है भारी, कर दो बस्ता हल्का,मन हो जाये फुलका' मन और दिल दोनों में हलचल मचाती है। इन पंक्तियों में व्यंग्य ही नहीं बल्कि संदेश भी है और साथ ही ये पंक्तियां मन की गहराई में ही नहीं उतरती बल्कि व्यवस्था पर भी करारी चोट करती है। बच्चा बारह किलो का और बस्ता तेरह किलो का, कैसी व्यवस्था है यह? ''मेरी मैडम, मेरे सरजी, हमें पढ़ाते, अपनी मरजी' सब कुछ कह देती है यह चार लाइनें। तो क्या शिक्षक अपना धर्म भूल गए हैं? इसी के साथ ही इनकी एक और बाल कथा कृति 'चमत्कारी चूर्ण' अलग छाप छोड़ती है।
    
श्री शर्मा ने हिन्दी में ही नहीं बल्कि राजस्थानी में भी बाल साहित्य लिखा है। उसे पढ़कर तो एक बात और पुख्ता हो जाती है कि राजस्थानी भाषा के माध्यम से इन्होंने बात बच्चों तक ही सीमित नहीं रखी है बल्कि बड़े-बूढ़ों को भी सोचने पर विवश किया है। कहानी 'स्यांती' के माध्यम से इन्होंने एक ऐसी लड़की के संघर्ष की कहानी लिखी है जो नारी के मान-सम्मान को ही बरकरार नहीं रखती अपितु संघर्ष में भी जीत की बात करती है। स्यांती की कहानी पढ़कर तो मुझे ऐसा लगा जैसे यह एक स्यांती की कहानी नहीं है बल्कि बहुत सी स्यांतियों की कहानी है। ऐसी कहानियां उस समाज की सोच बदलने में सक्षम है जहां नारी को दोयम दर्जे की माना है।
   
 'बात रा दाम' कृति बच्चों के तीन नाटकों पर आधारित है। यह कृति मनोवैज्ञानिक तौर पर यह सोचने को मजबूर करती है। इस कृति में समाहित तीनों नाटक मंचन करने लायक हैं। मानद साहित्य संपादक के रूप में लेखक 'टाबर टोल़ी' नाम से एक पत्र भी निकालते हैं जो देश के कोने-कोने में जाता है। यह एक लाजवाब संघर्ष है। परन्तु इसी नाम से इनका राजस्थानी कहानी संग्रह 'टाबर टोल़ी' भी प्रकाशित हुआ है। 'काळू कागलो अर सिमली कमेड़ी'जैसी स्तरीय रचना लिखकर लेखक ने एक नयी रेखा पैदा की है। ऐसी प्रशंसनीय कहानी बाल साहित्य में बहुत कम पढऩे को मिलती है। इसके साथ ही 'म्हारा गुरुजी' जैसी एकांकी भी लिखी है जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि सब कुछ सामने ही घट रहा है। अपने आस पास जो हो रहा है इसे उभारने में यह एकांकी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। इसी कड़ी की इनकी कृति 'तूं कांईं बणसी' भी अलग से नजर आती है।

राजस्थानी भाषा में लिखी हुई इनकी अन्य कृतियां 'शंखेसर रा सींग' एवं 'सुणौ के स्याणौ' भी उतनी ही प्रभावशाली छाप छोड़ती है जितनी 'स्यांती'। हिन्दी माध्यम के साथ-साथ मायड़ भाषा राजस्थानी में भी दीनदयाल शर्मा ने बच्चों के लिए ऐसी आकृति पैदा की है जिसकी गूंज आने वाले वर्षों तक भी महसूस की जाएगी और इनका बाल साहित्य बच्चों के विकास में हमेशा ही योगदान देता रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

अंत में मैं इनकी एक और कृति की चर्चा करना अति आवश्यक समझता हूं। वाह, इन्होंने अंग्रेजी में भी हाथ डाला है। यह भी बाल कृति है 'द ड्रीम्स'। इस कृति का विमोचन 17 नवम्बर 2005 को तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति श्रद्धेय डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के हाथों संपन्न हुआ था। हर बच्चा एक सपना देखता है, कितने सपने साकार होते हैं, परन्तु यह कृति बच्चों को संदेश ही नहीं देती बल्कि उनके लिए एक सकारात्मक सोच पेश करती है।

दीनदयाल शर्मा कई वर्षों से लिख रहे हैं वह वास्तव में अनूठा है। भविष्य में भी वे बाल साहित्य के जरिए ही नहीं बल्कि हर दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इनके तमाम लेखन के लिए मेरी बधाइयां।

'मेजर' रतन जांगिड़
मानसरोवर, जयपुर,

दिनांक : 17/07/2007






बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार...
Edition : 16 - 31 March , 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 5
















समर्पित एवं आदर्श बाल साहित्यकार : दीनदयाल शर्मा

बाल साहित्य का नाम सुनते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा साहित्य जो बालमन, बाल मस्तिष्क एवं बाल हृदय के अनुरूप लिखा जाता हो। कहने को तो भारतभूमि में बाल साहित्यकारों की बाढ़ आयी है। आज की स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि हर कोई बाल साहित्य रूपी मन्दाकिनी में प्रविष्ट होना चाहता हे। इस सन्दर्भ में अच्छी बात यह है कि इससे बालसाहित्य की लोकप्रियता का आभास होता है। वर्तमान युग में बालसाहित्य काफी चर्चित एवं लोकप्रिय हुआ है। किन्तु बुरी बात यह है कि हर कोई कलम कागज के साथ बाल साहित्य में अपनी सहभागिता निभाने के लिए उतावला हो रहा है। यही कारण है कि बालसाहित्य जिस स्तर का आना चाहिए वह स्तर नहीं बन पा रहा है, इससे बाल साहित्य के अग्रणी पुरोधाओं के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक है। उन अग्रणी बालसाहित्यकारों में एक नाम हनुमानगढ़ के दीनदयाल शर्मा का है। श्री शर्मा लम्बे समय से बालसाहित्य की सेवा कर रहे हैं। कई संगोष्ठियां, सम्मेलनों एवं कॉन्फ्रेन्सों में उन्हें सुनने को मिला है। जिससे उनकी खूबियों का अहसास हुआ है।

श्री शर्मा बच्चों के लिए लिखते हैं तो बाल मन, बाल मस्तिष्क एवं बाल हृदय को मानो आत्मसात कर लेते हों। लोग कहते हैं बच्चों के लिए लिखने में क्या है? संभवत: ऐसे कथन एवं ऐसे लोगों द्वारा सचेत बाल साहित्य ही बाल साहित्य जगत को खण्डित कर रहे हैं। बिना बाल मनोविज्ञान को समझे बच्चों के लिए लिखना हवा में तीर चलाने जैसा है। श्री शर्मा की खूबी है कि वे बच्चों के लिए लिखते समय बच्चा बनकर ही सोचते हैं और उस चिन्तन से बच्चों के अनुसार शब्द देकर बालसाहित्य का सृजन करते हैं। हम सभी जानते हैं कि बालक का हृदय मोम की तरह होता है उसे जैसा चाहें पिघला सकते हैं अत: ऐसे मुलायम हृदय पर प्रहार करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए, अपितु उस पर मरहम लगाने की कोशिश होनी चाहिए।

यों तो श्री शर्मा जी बालमन एवं बाल हृदय को समझकर उनके अनुरूप ही बाल साहित्य का सृजन करते हैं किन्तु उनकी एक विलक्षण खूबी है कि वे उसे अन्तिम रूप देने के पूर्व 25-50 बच्चों को सुनाकर तब अन्तिम रूप देते हैं। यह खूबी विरले बाल साहित्यकारों में ही दृष्टव्य होती है, उनमें श्री शर्मा जी अग्रणी है। यही कारण है कि उनकी बाल कविताएं, क्षणिकाएं, कहानियां बच्चे बड़े चाव से पढ़ते हैं। प्रत्येक कवि एवं लेखक की यह आचार संहिता होनी चाहिए कि वह जिसके लिए लिख रहा है उस रचना को अन्तिम रूप देने के पूर्व उस वर्ग से सन्तुष्ट हो लें। इसके लिए शर्मा जी को आदर्श माना जाता है। उनकी इसी खूबी के कारण उनकी रचनाओं के पाठक अच्छी संख्या में हैं और उन्हें उनकी नवीन कृति का सदैव इन्तज़ार रहता है। यह स्थिति किसी भी लेखक के लिए सुखद कही जा सकती है।

श्री शर्मा जी बाल साहित्य के स्तर को बढ़ाने की दृष्टि से एक पथ 'टाबर टोल़ी' भी निकाल रहे हैं जिसके माध्यम से समय-समय पर बाल साहित्यकारों को स्तरीय साहित्य परोसने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। अपने इस पथ के माध्यम से बच्चों की सृजन क्षमता को वृद्धिंभत करते हुए उन्हें लिखने के लिए एक प्लेटफार्म भी देते हैं। 'टाबर टोल़ी' में प्राय: बच्चों की रचनाएं देखकर प्रसन्नता होती है और हृदय बाग-बाग होकर कह उठता है- 'धन्य हैं आप और धन्य है आपकी सेवाएं ।'

आप बाल साहित्य की सेवा कई दृष्टियों से कर रहे हैं। बाल साहित्य की अनेकानेक विधाओं पर लेखनी चलाकर जहां बच्चों के लिए उपयोगी सामग्री परोस रहे हैं, वहीं अनेकानेक बाल पत्रिकाएं आपकी रचनाओं से समृद्ध हो रही हैं तथा अनेक पुस्तकों का सृजन कर बाल साहित्य को समृद्ध किया है। बाल पत्रिका निकालकर आपने बच्चों की सृजनशीलता को बढ़ावा देने का कार्य अनवरत कर रहे हैं। अच्छे बाल साहित्य के प्रकाशन में भी आप निरन्तर मार्गदर्शन कर रहे हैं। यही नहीं, स्थान-स्थान पर भ्रमण कर बाल साहित्य की दशा एवं दिशा से लोगों को जागरूक भी कर रहे हैं तथा बाल साहित्य का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। एक व्यक्ति किन्तु बाल साहित्य के क्षेत्र में उसके विराट एवं बहुविध कृतित्व को देखकर अन्तर्मन उल्लासित हो उठता है और उन्हें बधाई देने के लिए प्रेरित होता है। अत: व्यक्तित्व एक किन्तु कृतित्व अनेक के लिए श्री शर्मा जी को बहुत-बहुत बधाई तथा शुभकामना कि आप इसी प्रकार युगों-युगों तक बाल साहित्य की सेवा करते रहें।

डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश',
निदेशक, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय,
जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय,
लाडनूं, राजस्थान


बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार...
Edition : 16 - 31 March , 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 4

















खुशी के हर मौके पर बधाई देने वालों में सबसे अग्रणी

एक व्यक्ति बहुत अच्छा कवि, साहित्यकार, डॉक्टर, नेता, अध्यापक हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह एक बहुत अच्छा इंसान भी हो। लेकिन मैं एक ऐसे कवि व बाल साहित्यकार को जानता हूं, जिसमें अच्छे इन्सान के गुण भी शामिल हैं, और वो हैं श्री दीनदयाल शर्मा। इस साहित्यकार ने बाल साहित्य को सिर्फ लिखा ही नहीं है बल्कि उसे समाज में बच्चों की पीड़ा उजागर करने के वास्तविक प्रयास से भी जोड़ा है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण 1986 में 'राजस्थान बाल कल्याण परिषद्' की स्थापना करना है।

इनका एक असाधारण गुण जो मैंने देखा है वो हर समय नये साहित्यकारों की सहायता करना। प्राय: एक साहित्यकार नये साहित्यकारों को मन से सहयोग नहीं करते हैं। लेकिन श्री शर्मा इसके बिल्कुल अपवाद हैं। जब भी कोई नया साहित्यकार अपनी रचना के सन्दर्भ में इनसे बात करता है, ये पूरे मन से उस रचना की खूबियां एवं कमियां उस साहित्यकार को बताते हैं। उसमें प्रोत्साहन का संचार करते हैं और पूरे मन उसकी प्रशंसा करते हैं।

बाल मनोविज्ञान को समझकर ही कोई व्यक्ति बाल साहित्य का सृजन कर सकता है और बाल मनोविज्ञान को समझना, किसी साधारण व्यक्ति के स्तर का कार्य नहीं होता है। परन्तु दीनदयाल शर्मा जो एक ऐसी पृष्ठ भूमि के व्यक्ति हैं, जहां परिवार में साहित्य से जुड़ा कोई व्यक्ति नहीं था, ऐसे गांव में बचपन बीता, जहां साहित्य का कोई वातावरण नहीं था। फिर भी बाल-साहित्य में इन्होंने जिस बाल-मन का वर्णन किया है वह बाल साहित्य का सर्वोच्च सोपान है और यह बात इससे सिद्ध होती है कि इनको बाल साहित्य के देश के लगभग सभी पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। जिसमें राजस्थान साहित्य अकादमी का शम्भुदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार (1988-89) राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार (1998-99) चन्द्रसिंह बिरकाली राजस्थानी बाल साहित्य पुरस्कार चित्तौडग़ढ़ (1999) सर्वश्रेष्ठ बाल साहित्य पुरस्कार देहरादून (2001) आदि। दर्जनों साहित्य की पुस्तकें, आकाशवाणी से अनेक नाटकों का प्रसारण, हर काव्य मंच पर काव्य पाठ, ऐसी अनेक उपलब्धियां हैं, जो श्री शर्मा का नाम सारे देश में प्रसिद्ध कर रही हैं।

इनकी पुस्तक ''द ड्रीम्स" जो देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की थीम पर आधारित है। जिसका विमोचन 2005 में स्वयं डॉ. कलाम ने किया था। बाल साहित्य में यह उपलब्धि मील का एक पत्थर है। बाल साहित्य ही नहीं बल्कि नाटक, झलकी, हास्य कविताएं, गंभीर कविताएं आदि में भी इनका अमूल्य योगदान है। मंच पर जब श्री शर्मा अपनी हास्य क्षणिकाओं को प्रस्तुत करते हैं तो वृद्ध व जवान भी बच्चों जैसी निश्छल हंसी से लोट-पोट हो जाते हैं। माइक पर बार-बार श्री शर्मा को आमंत्रित करने का आग्रह किया जाता है। अनेक उपलब्धियां प्राप्त यह व्यक्ति मिट्टी से जुड़ा रहना ही पसन्द करता है।

साहित्यकार को थोड़ी सी प्रशंसा या छोटा सा एक पुरस्कार घमण्डी बना डालता है। लेकिन आप अगर दीनदयाल शर्मा से मुलाकात करते हो तो आपको कहीं भी यह आभास नहीं होगा कि आप एक राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार के साथ बैठे बातें कर रहे हैं। यह बाल साहित्यकार अपनी इतनी ऊंची उड़ान के बावजूद भी, अपने मित्रों अपने गांव को हमेशा अपने दिल के करीब रखता है, और मैं तो यह कहूंगा कि यह अपने-आप में एक अजूबा है कि आज इस स्वार्थी युग में दीनदयाल शर्मा अपने हर मित्र, रिश्तेदार, साहित्यकार को उसके खुशी के हर मौके पर, चाहे जन्मदिन हो, विवाह की वर्षगांठ हो या साहित्य की कोई उपलब्धि। उसे सुबह-सुबह शुभकामना देना नहीं भूलते। यह बात इस व्यक्ति के मन की निश्छलता को व्यक्त करती है। जो आज के युग में ढूंढऩा कितना मुश्किल है। सभी जानते हैं।

जो बातें मैंने कही है उनमें कहीं भी अतिश्योक्ति नहीं है, क्योंकि सहयोग और सेवा, साहित्य के अतिरिक्त इनका एक गुण है, जो भी इनके सम्पर्क में आता है इनके सरल, सहज साहित्य की तरह इनके सरल, सहज व्यवहार का भी कायल हो जाता है। अत: मैं इनकी प्रतिभा से, साहित्य जगत के लिए, समाज के लिए और भी बहुत सी अपेक्षाएं करता हूं और मुझे पूरा विश्वास है कि ये अपनी कलम से समाज व बाल साहित्य को नित नई ऊंचाइयां प्रदान करते रहेंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।

सतीश गोल्यान, जसाना
मोबाइल : 09929230036


बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार...
Edition : 16 - 31 March , 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 3



























ऊर्जावान रचनाकार : दीनदयाल शर्मा

पांच मार्च, 2006 : मैं जयपुर के अजमेर रोड क्षेत्र के एक होटल जैसे गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। सुबह-सुबह कमरे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो चुस्त-दुरुस्त व्यक्ति के दर्शन हुए। बोले, ''मैं दीनदयाल शर्मा, हनुमानगढ़ से....आप?''


मैं भगवतीप्रसाद गौतम कोटा से....आइए। मेरे आग्रह पर वे पास के बेड पर बैठ गए और कहने लगे, ''कैसा संयोग है कि सफर के दौरान जिनके बारे में सोचता आया, सबसे पहले उन्हीं से भेंट हुई।'' यह प्रसंग जुड़ा था 'बाल चेतना'...के वार्षिक सम्मान समारोह से। बाल चेतना...बाल साहित्यकारों की राष्ट्रीय संस्था, जिसके सचिव हैं जाने माने हस्ताक्षर डॉ.तारादत्त निर्विरोध। मुझे भगवतीप्रसाद गौतम, दीनदयाल शर्मा, हनुमानगढ़, डॉ.दर्शनसिंह आशट पटियाला(पंजाब), डॉ.अजय जनमेजय बिजनौर (उ.प्र.), डॉ.उदयवीर शर्मा बिसाऊ (राज.)और कमला रत्नू, जयपुर को यहां सम्मानित किया जाना था।

इस मुलाकात से पहले भाई दीनदयाल शर्मा का नाम ही सुना था। उनकी पुस्तक भी नहीं देखी थी। लेकिन उस दिन उनकी सक्रिय संवाद-पटुता ने मुझे बरबस ही छू लिया था। किसी भी रचनाकार को पढऩे-लिखने की प्रेरणा भले ही कहीं से भी मिले। मगर जब तक भीतर की ऊर्जा जागृत नहीं होती, रचनाकार क्या रचेगा। कैसे रचेगा-लिखेगा। किन्तु शर्मा जी की ऊर्जा ने तो उन्हें लेखक ही नहीं, कवि भी बना दिया। ...और वह केवल हिन्दी का ही नहीं बल्कि राजस्थानी का भी।


1975 से सतत् सृजन करते हुए उन्होंने कहानी, कविता व नाटक जैसी विधाओं में दो दर्जन के लगभग कृतियां बाल पाठकों के लिए रचीं। वे इतने सामर्थ्यवान साबित हुए कि बाल कथा संग्रह 'चिंटू-पिंटू की सूझ' पर उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी के शंभूदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार 1988-89 से नवाज गया। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर द्वारा भी 'शंखेसर रा सींग' बाल नाटक पर जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार 1998-99 दिया गया। यों देखा जाए तो दीनदयाल विशिष्ट व्यक्तित्व और अद्भुत कृतित्व के धनी हैं, समय की रफ्तार को समझते हैं और उसके अनुकूल ही पांव बढ़ाते चलाते हैं। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए. पी.जे.अब्दुल कलाम की सोच के अनुरूप रचित उनका बाल नाटक 'द ड्रीम्स' का विमोचन भी महामहिम के कर-कमलों से होना एक गरिमामयी उपलब्धि रही है।

शर्मा जी बाल पाक्षिक 'टाबर टोल़ी' के मानद साहित्य संपादक भी हैं। इनकी मिलनसारिता के कारण देश के अनेक प्रतिष्ठित रचनाकार अपनी कलम से सतत् सहयोग देते रहते हैं। वैसे भी वे बच्चों की मानसिकता को समझते हैं। और उनकी जरूरतों पर पैनी नज़र रखते हैं। इसीलिए उनकी रचनाएं बालकों के स्तरानुकूल बन पड़ती हैं। जैसा सहज सरल उनका व्यक्तित्व है, वैसा ही पठनीय-सराहनीय है उनका कृतित्व। चाहे 'चिंटू-पिंटू की सूझ' व 'पापा झूठ नहीं बोलते' जैसी कथा पुस्तकें हों या 'कर दो बस्ता हल्का' व 'सूरज एक सितारा है' जैसे बाल काव्य संग्रह। चाहे 'द ड्रीम्स' जैसा अंग्रेजी बाल नाटक हो या 'चंदर री चतराई' जैसी राजस्थानी कथा कृति।

जहां उनमें कथ्य की मौलिकता पाठकों को आकृष्ट करती है, वहीं शिल्प भी प्रभावित किए बिना नहीं रहता। बोधगम्य एवं प्रवाहमयी भाषा के साथ आंचलिक शब्दों तथा प्रचलित मुहावरों-लोकोक्तियों का प्रयोग उनकी रचनात्मकता को अधिकाधिक रोचक व सार्थक बना देता है। सच तो यह है कि एक विशेष बोझिल गांभीर्य ओढ़कर जीने की आदत दीनदयाल ने पाली ही नहीं। वे मुस्कराते हैं, हँसते हैं और खिलखिलाते हैं तो अपनी कलम के बूते वैसी ही जीवंत रचनाएं भेंट करने का दायित्व भी ईमानदारी से निभाते हैं। चुस्त- सूरत और मस्त सीरत के स्वामी का सान्निध्य हमें आज भी प्राप्त है। प्रत्यक्ष नहीं तो कम से कम सप्ताह में दो-तीन बार फोन पर बात हो ही जाती है। सफर जारी रहे....हार्दिक मंगल कामनाएं।

-भगवतीप्रसाद गौतम,
1-त-8, दादाबाड़ी, कोटा, राज.,
फोन : 0744-2504165,






बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार...
Edition : 16 - 31 March , 2010