Friday, December 10, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -23

सरल और मासूम शिशु की भांति एक निश्छल आभा के धनी दीनदयाल शर्मा
साल का बच्चा। जी हां, बालसाहित्याकाश का एक ऐसा सूरज जिसे हम दीनदयाल जी शर्मा के नाम से जानते हैं। श्री दीनदयाल जी जैसे सुप्रबुद्ध तथा सशक्त व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी कहना या लिखना मेरे लिए बड़ा ही चुनौती भरा कार्य रहा है। क्योंकि मेरे पास इतने शब्द ही नहीं है जिनके द्वारा मैं अपने मनोभावों को व्यक्त कर सकूं। इसके अलावा मन एक और उलझन में फंस गया कि सर्वप्रथम कौनसी बात लिखूं, चयन नहीं कर पा रही हूं। मन के जितने भी भाव हैं, उन्हें सर्वप्रथम ही लिखना चाहती हूं और ऐसा संभव है नहीं।
   
 सुपरिचित बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल जी शर्मा का नाम किसी के लिए भी नया नहीं है। जिन विद्वान साहित्यकारों, कवियों, साहित्य/संस्कृति को अपने जीवन की साध माना है उनमें बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल शर्मा का नाम सर्वप्रथम आता है। जसाना में जन्मे व पले-बढ़े श्री शर्मा जी आज उम्र में मेरे पापा के हमउम्र हैं। लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता क्योंकि जहां तक मैं जानती हूूं ये तो बच्चे हैं। क्योंकि ये हृदय से एकदम बच्चे की तरह सरल और निश्छल हैं। मैंने महसूस किया है कि उनमें आज भी एक बच्चे का दिल धड़कता है, और इसीलिए मैंने उन्हें बच्चा कहा है। हर वक्त इनके मुखमण्डल पर एक सरल और मासूम शिशु की भांति एक निश्छल आभा विराजमान रहती है जो किसी के भी मन को मोह लेने में सक्षम है। साथ ही एक खास बात और जो मेरे अंतस में गहरे तक उतरती है, ये बच्चों के साथ बच्चे और बड़ों के साथ बड़े हो जाते हैं। विषय हास परिहास का चल रहा हो तो आप दिल खोलकर हंसते-हंसाते हैं और यदि विषय गंभीर हो तो इनके चेहरे पर सागर सी गहराई झलकती है। साथ ही इनकी स्पष्टवादिता हरेक के मन में गहरे तक उतर जाती है।
    
सामान्य कद-काठी के साथ-साथ ये असाधारण व बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। अपनी अनुपम विचार शक्ति, प्रखर बुद्धि और ओजस्विता से सबको चकित कर देते हैं। इनकी हंसी अकृत्रिम है। इनके समक्ष बैठने के पश्चात परिचय का अभाव नहीं खलता। हर एक से मुक्त हृदय से मिलना-जुलना इनके स्वभाव में शामिल है। मालूम होता है कि श्री शर्मा जी किसी का भी दिल नहीं तोडऩा चाहते। इनका मुखर व्यक्तित्व हर अनजान को अपना बनाने का सामथ्र्य रखता है। आपके चेहरे पर दृढ़ निश्चयी होने के भावों के साथ ही संतोष के भाव झलकते हैं तथा पोशाक में सादगी है। इनके उठने बैठने, चलने-फिरने को देखकर पता चलता है कि जीवन में सादगी प्रिय है। कुछ और बातों पर है, जिनमें साहित्य पत्रकारिता, अध्यापन व बीसियों किस्म की अन्य सामाजिक जिम्मेदारियां शामिल हैं। जिस सभा में श्री दीनदयाल जी हों वहां उदासी एवं हताशा नहीं ठहरती। ऊर्जा का निरंतर प्रवाह इनके व्यक्तित्व में दिखाई देता है। जो इनके सानिध्य में आने वालों को भी ऊर्जावान बना देता है। ये जहां भी होते हैं, अपने वात्सल्य से सभी को कायल करने से जान पड़ते हैं। आप हैं ही कुछ ऐसे की आपकी मधुर वाणी सुनने वालों के कानों में मधुरस घोलती सी जान पड़ती है।
    
श्री दीनदयाल जी का पारिवारिक वातावरण भी संस्कारित एवं आत्मीयतापूर्ण है। वहां जाकर कोई भी अपने अजनबीपन को बनाये नहीं रख सकता। अतिथि की वहां खैर नहीं है, क्योंकि इस परिवार के द्वारा निस्वार्थ भाव से की गई खातिरदारी अतिथि को एकदम फलक पर बैठा देती है। मुझे कई बार इस परिवार से मिलने का सौभाग्य मिला है। बनावट से कोसों दूर यह परिवार भारतीय संस्कृति का सजीव उदाहरण है। साहित्य मानव मन का ही भाव साम्राज्य होता है। जो बाहरी संसार हम देख रहे हैं उससे कहीं अधिक विस्तृत जगत हमारे मन में स्थित है। आवश्यकता होती है मन पर से अविचार का कोहरा छंटने की और श्री शर्मा जी से तो यह कोहरा कोसों दूर तक दिखाई ही नहीं देता। आज जब सब और अंग्रेजी भाषा और सभ्यता की दुहाई दी जा रही है ऐसे समय में अपनी मातृभाषा में बाल मन को साहित्य के माध्यम से शिक्षित और संस्कारित करने का प्रयास श्री शर्मा जी कर रहे हैं वह अपने आप में अद्भुत है। शास्त्रों में कहा गया है कि सृष्टि की रचना शब्द से हुई है। उसी शब्द ब्रह्मा की उपासना साहित्यकार अपनी-अपनी शैली में करते हैं। 

सरस्वती पुत्र अपनी लोकोत्तर प्रतिभा के द्वारा एक शब्द संसार की रचना करता है जो कि मानवीय समस्याओं को स्पष्ट रूप से उभारता है। नामरूपात्मकं विश्वं यदिदं दृश्यते द्विधा। तत्राघस्य कविर्वेधा, द्वितीयस्य चतुर्मुख:।।  अर्थात् नाम और रूपात्मकं जो दो प्रकार का यह संसार दीख प्रड़ता है, उसमें से आदि अर्थात् नामात्मक जगत का निर्माणकर्ता कवि है और रूपात्मक जगत का निर्माणकर्ता ब्रह्मा है। इसी प्रकार श्री दीनदयाल शर्मा शब्द संसार की रचना करके भावी पीढ़ी को संस्कारित करने में प्राणपण से लगे हैं। हिन्दी और राजस्थानी भाषा में आपका रचनाकर्म विविध खूबियों को संजोये हुए है। आपने अपने काव्य में बाल मनोविज्ञान को बहुत ही निकट से समझा है। बाल मन की जो समस्याएं सामान्य व्यक्ति को स्पष्ट नहीं हो पाती, वो आपके काव्य में मुखर हो उठती है। 

बाल साहित्य तीर्थ के महायात्री व शब्दयोगी श्री शर्मा जी ने आज बाल साहित्य को उस मुकाम पर पहुंचाया है जहां हम उनके बाल साहित्य पर गर्व कर सकते हैं। जीवन के अच्छे और बुरे दोनों रूपों का आपको गहरा अनुभव है और अहसास भी। आपके अनुभवों की कोई सीमा नहीं है। बाल जीवन से जुड़ी बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी चीज आपकी कलम का निशाना होती है और जहां तक मैं जानती हूं, ये सिर्फ लिखते नहीं, तन्मय होकर लिखते हैं, जीते हैं उसे। महसूस करते हैं, डूबते हैं उसमें। तभी तो सच्चा साहित्य मोती निकालकर लाये हैं हमारे सामने। वैसे भी मोती तो गोताखोर ही निकालते हैं भीगने से डरने वाले नहीं। यशस्वी बाल साहित्य पाठक को अपने नजदीक लाता है। बचपन के सामान्य अनुभव और अनुभूतियों से कैसे सार्थक और पठनीय साहित्य लिखा जा सकता है, इस तथ्य को श्री शर्मा जी के बाल साहित्य में स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। 

आपके साहित्य में बाल जीवन के व्यापक चित्र दिखाई देते हैं जो पाठक दृष्टि को चिन्तनशील बनाते हैं। आपके काव्य में हास्य के साथ-साथ व्यंग्य का चुटिलापन भी रहता है जो कि पाठक या श्रोता के हृदय को झकझोरता है। देश एवं समाज की दुर्दशा के बारे में सोचने को विवश करता है, आपके बहुत से व्यंग्य शिक्षक वर्ग की कमजोरियों और अकर्मण्यता को लेकर हैं जो सिद्ध करते हैं कि आप बालकों की शिक्षा को लेकर कितने गंभीर है। श्री दीनदयाल जी ग्रामीण और शहरी जीवन से गहरा सरोकार रखते हैं इसलिए आपके साहित्य में ग्रामीण और शहरी जीवन की सभी समस्याओं, विडम्बनाओं का प्रामाणिक लेखा-जोखा मिलता है। आपका बाल साहित्य ठोस यथार्थ के धरातल पर खड़ा हुआ दिखाई देता है। जिसमें कोरी काल्पनिक उड़ान की कोई गुंजाइश नहीं है। आप कवि हैं, लेखक हैं और साथ ही एक अध्यापक भी हैं लेकिन इन सबसे पहले आप एक जागरुक समाज सेवक हैं। 

आपका बाल साहित्य बच्चों और समाज के लिए मनमोहक उपहार है। बाल साहित्य सृजन आपकी तपस्या है, साधना है और इस साधना में आपका समर्पण भाव अभिनंदनीय है। इसी समर्पण भाव से आपने हिन्दी और राजस्थानी भाषा में बाल साहित्य को पूरी लगन और निष्ठा से प्रस्तुत किया है जिसमें जीवन के विभिन्न रंग अपनी सहजता और सरलता से प्रत्येक पाठक को लुभाने में सक्षम है। आपके बाल साहित्य में बाल मन की भावात्मक सुन्दरता के साथ-साथ कम शब्दों में भावों की अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यंजित हुई है।
    
बहुमुखी प्रतिभा के धनी और समाज सेवक श्री दीनदयाल जी ने पत्रकारिता के कार्य से भी समाज सेवा का बीड़ा उठाकर इस कार्य का सुन्दर ढंग से निर्वाह किया है। टाबर टोल़ी पाक्षिक तथा कानिया मानिया कुर्र त्रैमासिक जैसे पत्रों में आप दैनन्दिन समाचारों के साथ-साथ उत्कृष्ठ कविताओं, कहानियों व अन्य साहित्यिक प्रकाशन भी करते हें, जिससे नवोदित प्रतिभाओं को राजस्थानी, हिन्दी लेखन का भरपूर अवसर आप उपलब्ध करा रहे हैं। जो कि साहित्यिक उत्थान में एक सार्थक प्रयत्न है। मैंने साहित्य के प्रकाश पुंज श्री दीनदयाल जी के बारे में बहुत सुना, पढ़ा और जाना। परन्तु स्थिति एकदम वैसी ही है जैसी भूषण कवि के समक्ष आयी-
''साहू को सराहौ के सराहौ छत्रसाल को।'

मैं भी किसकी सराहना करूं? जहां इनका साहित्य भावों के भोलेपन से युक्त है वहीं इनके स्वभाव की दृढ़ता मेरे मन को गहराइयों तक स्पर्श करती है। श्री शर्मा जी सिर्फ लिखते नहीं, उसे जीते हैं। सिर्फ छूते नहीं महसूस करते हैं। सिर्फ देखते नहीं गौर करते हैं। सदा मुस्कुराना और सबको प्यार करना, गुणीजन का सम्मान पाना, बच्चों के दिल में रहना और सच्चे आलोचकों की स्वीकृति पाना, आदि बातें आपके स्वभाव में शामिल हैं। साथ ही आप खूबसूरती की सराहना करते हैं दूसरों में खूबियां तलाशते हैं और बिना किसी उम्मीद के दूसरों के लिए खुद को अर्पित कर देते हैं। आपके इन्हीं गुणों के बारे में सोचकर मेरा अन्र्तमन आलोकित हो उठता है। मां सरस्वती की कृपा आप पर हमेशा यूं ही बनी रहे तथा आप अपने अनुभव, चिन्तन आत्मीयता और समर्पण से बाल साहित्य जगत को अपनी लेखनी द्वारा समृद्ध करते रहें तथा आपका आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ बना रहे। इसी आशा और आपके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की मंगलकामनाओं के साथ। 

- कृष्णा जांगिड़ 'कीर्ति', जसाना
दिनांक :  5/03/2010

Wednesday, July 21, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -22

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी : 
दीनदयाल शर्मा

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचन्द या टालस्टाय के बारे में 'कुछ' लिखना बड़ा आसान लगता है। क्योंकि उनके द्वारा लिखे गए के अलावा उनके बारे में लिखा गया भी बहुत पढ़ा जा चुका है। पर किसी उस व्यक्ति के बारे में लिखा हुआ कम पढ़ा गया हो पर हो वह सुपरिचित। अब यह समझ में ही नहीं आ रहा कि श्री दीनदयाल शर्मा को क्या माना जाए?बाल साहित्यकार, साहित्यकार, कवि, हँसोड़, पत्रकार या फिर केवल मित्र। यह निर्णय कर पाना काफी कठिन है कि उनका कौनसा रूप उल्लेखनीय है या वे हरफनमौला हैं। कुछ भी हो, उन्हें यदि साहित्य का आमिर खान कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हिन्दी फिल्म  जगत ज्यादातर अभिनेता कद में लम्बे हैं, पर कद में छोटा होने पर भी आमिर खान अभिनय में कइयों से ऊंचे हैं। इसी तरह सामान्य कद काठी के श्री दीनदयाल शर्मा भीड़ में चाहे छिप जाएं, पर साहित्य जगत में अपना कद काफी ऊंचा कर चुके हैं। यहां उन्हें छिपाना अब संभव नहीं है।

उनके परिचय का दायरा भी लम्बा-चौड़ा है। देश में कहीं भी जाएं, जहां दो-चार कवि, लेखक जुड़ेगे, इनके परिचित मिल ही जाएंगे। कुछ साल पहले उदयपुर में एक सज्जन मिले। परिचय हुआ। उन्हें बताया कि संगरिया हनुमानगढ़ जिले में हैं तो वे चहके-हनुमानगढ़ में तो एक वे हैं जो डुक मार कर हँसाते हैं...दीनदयाल जी..।

दुनियाभर में पहलवान दूसरे को रुलाने के लिए घंूसा मारते हैं। एक दीनदयाल शर्मा ही हैं, जो दूसरों को हँसाने के लिए घूंसे  या राजस्थानी 'डुक' मारते हैं। कहने का मतलब है कि मंच से जिसने भी इनकी राजस्थानी कविताएं सुन ली हैं, वह इन्हें भूल नहीं सकते। अभी कुछ दिन पहले अलवर के श्री सुमतिकुमार जैन से बात हुई तो बोले आपके हनुमानगढ़ में तो हमारे परिचित हैं...। वे आगे कुछ बोले, इससे पहले ही मेरे मुँह से निकल गया-दीनदयाल शर्मा...। 

हां, बिल्कुल यही....।

जो वे बताने जा रहे थे। कभी-कभी लगता है हनुमानगढ़ को प्रसिद्धि भटनेर या घग्घर से नहीं बल्कि श्री दीनदयाल शर्मा से ज्यादा मिली है। अनजान व्यक्तियों से भी उन्हें सहजता से बात करते, उनसे घुलते-मिलते देखा गया है। गाड़ी में, बस में...खाली रस्मी परिचय नहीं, रचनात्मक। एक बार गाड़ी में उनके साथ स$फर करते हुए देखा कि अपरिचित से परिचित होते ही उन्होंने उसके हाथ में अपनी कोई किताब या टाबर टोल़ी का नया अंक थमा दिया। इस हिदायत के साथ कि खुद भी पढऩा और बच्चों को भी पढ़ाना। यदि दीनदयाल के बस्ते में दो किताब है तो समझिए, किताबें कैद में नहीं रहेंगी। उन्हें पाठक मिलेंगे। मेरे जैसे व्यक्ति के साथ श्री दीनदयाल बैठते हैं तो कितना अजीब लगता होगा। क्योंकि मैं किताबें बांटने में जितना कंजूस हूँ , वे उतने ही उदार।

जब भी किसी लेखक के बारे में अखबार में कोई सुसमाचार छपे और सुबह-सुबह ही लेखक, को 'मैसेज' का संकेत मिले तो सब समझ जाते हैं कि श्री दीनदयाल का बधाई संदेश है। इसलिए मजाक में यही कहा जाता है कि श्री दीनदयाल शर्मा रात में सोने से पहले 'अगले दिन' का दैनिक पढ़ लेते हैं और जागते ही मुँह धोने से पहले बधाई का एस.एम.एस. भेज देते हैं। इनकी यह सजगता और तत्परता लेखक और अ$खबार दोनों को निहाल कर देती है।

श्री दीनदयाल शर्मा को अभी तक टीवी के लाफ्टर शो में जाने का अवसर नहीं मिला है। इसलिए वे हमें और आपको हँसा कर अपनी इस कला का प्रदर्शन करते रहते हैं। अखबार में वर्गीकृत विज्ञापन की तरह वर्गीकृत लतीफों का भी उनके पास भंडार है। जैसे आप हैं, वैसा ही लतीफाबाण आपकी ओर आता दिखाई देगा। आपको नाक-भौं सिकोडऩे का मौका नहीं देंगे कि आप कहें-यह क्या सुना दिया। मर्यादा ही भंग कर दी। यही कारण है कि लड़कियों के कॉलेज में भी कन्याओं का मनोरंजन करने बुला लिए जाते हैं। स्टाफ निश्चित रहता है कि सीमारेखा का उल्लंघन नहीं होगा। आजकल तो पता नहीं, पहले तो $खुद दीनदयाल ही इसकी व्यवस्था करते थे। जब लड़कियों, महिलाओं की सभा में हास्य बिखेरने जाते थे, तब अद्र्धांगिनी श्रीमती कमलेश शर्मा को साथ ले जाते ताकि नियंत्रित रहें। ऐसा बताकर वे सरलता से स्वीकार करते रहे हैं कि उन पर बीवी का कंट्रोल है।

खैर, यह तो उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की बात है। यदि उनके कृतित्व पर दृष्टिपात करें तो वह भी कम नहीं है। उनकी 'मैं उल्लू हूँ ' यह उनकी स्वीकारोक्ति नहीं, उनके व्यंग्य संग्रह का शीर्षक है। उनके व्यंग्य लेखन का पुख्ता प्रमाण है। बाल साहित्य में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके कई बाल कथा संग्रह तो तभी छप गए थे जब आज के कई साहित्यकार शैशवास्था में थे। कवि के रूप में तो यही कहा जाएगा कि आज तक किसी मंच पर असफल नहीं हुए हैं। उनके लिए आमतौर पर 'एक और'... 'एक और'.... सुनाई देता है। क्षेत्र के कई साहित्यकारों को 'प्रकाशित' होने में उन्होंने संपादन-प्रकाशन मार्ग निर्देशन के क्षेत्र में अभूतपूर्व सहयोग दिया है। इनकी वजह से कइयों के हाथ में उनकी प्रकाशित कृतियां हैं। पर पत्रकारिता के क्षेत्र में टाबर टोल़ी उनका अभिनव प्रयोग है। 

राजस्थान से बाहर हिन्दी क्षेत्रों में उनके पाक्षिक का नाम कइयों को भ्रमित कर देता है, पर मैटर उन्हें हर्षित करता है। साहित्य और बाल साहित्य से जुड़े इस पाक्षिक को उनके धैर्य का प्रतीक कहा सकता है। गत सात वर्षों से निरंतर नियमित प्रकाशन, संपादन... वह भी साधन विहीनता की स्थिति में आश्चर्यचकित तो करता ही है। इसी उत्साह ने उन्हें एक बार कानिया मानिया कुर्र..नाम से राजस्थानी बाल अख़बार प्रकाशित करने की प्रेरणा हुई। पर तीनेक साल से आगे यह गाड़ी नहीं चली। काश...राजस्थानी अभियान के नेता आगे आते और एक नये नवेले राजस्थानी बाल अखबार को मरने न देते। खैर, कुछ भी हो, जीवन में अक्सर झंझावतों का सामना करना पड़ता है, पर वे अपने पथ से विचलित नहीं हुए, उनकी यह जिजीविषा बनी रहे, यही कामना है।                        

गोविंद शर्मा,  ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया, राजस्थान
1-15 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -21


बाल साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर : 
श्री दीनदयाल शर्मा

कभी-कभी मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि हमारे बीच के ही कुछ साहित्यकार इस बात से चिंतित दिखाई देते हैं कि बच्चों के जाने-पहचाने या प्रसिद्ध लेखक प्राय: नहीं लिख रहे हैं, यह बात बाल साहित्य के लिए अच्छी नहीं है। या फिर बड़ों के लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखते, इस कारण बाल साहित्य में स्तरीय रचनाओं का अभाव हो गया है। 

मुझे लगता है ऐसा है नहीं। यह बहुत सीमित सोच की उपज लगती है। अमुक लेखक बड़े हैं, बड़ा नाम है लेकिन बच्चों के लिए नहीं लिखते। ऐसे तथ्य ही बाल-साहित्य को हतोत्साहित करने को काफी हैं। 

एक कारण और मेरी समझ से यह भी है कि बाल साहित्य पर गंभीर रूप से, संजीदगी के साथ समीक्षात्मक कार्य न हो पाने के कारण बाल साहित्यकारों की श्रेष्ठ रचनाएं साहित्य-प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय नहीं बन पाती हैं। शायद इसीलिए हमारे कुछ बौद्धिक साहित्यिक मित्रों, लोगों को लगता है कि देश में बाल-साहित्य सर्जकों की कमी है, या फिर श्रेष्ठ बाल साहित्य अब नहीं रचा जा रहा। यह तो निराशावादी दृष्टि है। 

साथ ही मेरा यह भी मानना  है कि हर लेखक बाल-साहित्य लिख ही नहीं सकता। बच्चों के लिए लिखने में बच्चों जैसा मन प्राप्त करना पहली शर्त है। 

आप बड़ों के मन को भले ही टटोल लेंगे कि भीतर क्या चल रहा है? लेकिन बच्चों के मन की थाह पा लेना आसान नहीं। उनका कल्पना संसार बड़ा अद्भुत है। मौलिक भी है। बच्चों के मन को बांचने, फिर उसे बांध लेने का कौशल प्रदर्शित करना सिद्धहस्त साहित्यकार के लिए ही सम्भव है। ऐसा साहित्यकार ही समय की नब्ज़ को पहचानने और उसी अनुरूप अपनी लेखनी में भी बदलाव कर लेता है। पुराने और नए के बीच सामंजस्य भी बना लेता है। यह प्रसन्नता की ही बात है कि जिन बाल साहित्यकारों ने इस बदलाव को समझ लिया है, उनमें देश के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार दीनदयाल शर्मा भी शामिल है। श्री शर्मा ने हिन्दी साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में लेखन किया है। अनेक पुस्तकों का संपादन भी इन्होंने किया है। चूंकि स्वयं मन से सरल, सरस, खुश मिज़ाज व्यक्ति हैं इसलिए बाल-साहित्य भी रचते रहे हैं। अपनी रचनाओं में हास्य के रंग भी बिखेरते रहे हैं। इनकी खास बात यह है कि इनका लेखन नियमित रहता है। बाल साहित्य संबंधी गोष्ठियों में भी इनकी जीवंत उपस्थिति दूर-दूर तक रहती है। जैसा सीधा-सादा व्यक्ति है वैसा ही सीधा-सादा व्यक्तित्व। इनकी रचनाओं में नाना प्रकार के भाव एवं आस्वाद सहज रूप से देखने को मिलता है। कोई बौद्धिक लठैतपना नहीं, कोई पांडित्य भी नहीं। सहज, मन का स्पर्श करती हुई लेखनी। 

श्री दीनदयाल शर्मा बाल साहित्य को हर तरह से प्रासंगिक बनाने के अपने संकल्प में हर तरह से समर्पित दिखाई देने वाले साहित्यकार हैं। वे देश के एक महत्वपूर्ण बाल साहित्यकार के रूप में अपनी पहचान तेज़ी से बनाते जा रहे हैं तो मेरे ख्याल से इसके पीछे है- इनकी तर्क दृष्टि। इन्होंने यह अच्छी तरह से समझ लिया है कि अब सन् साठ के बच्चों के लिए नहीं, बल्कि आज के उन बच्चों के लिए लिखना है जो वर्तमान के हमारे जीवन, समाज, संस्कृति, राजनीति, अपराध आदि से अनभिज्ञ नहीं हैं। वे कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले बच्चे हैं। इनके अपने सपने हैं, अपनी अभिलाषाएं हैं, अपनी समस्याएं हैं और जो उनके पालनहारों से काफी भिन्न है। 

इसलिए वर्तमान की कटु सच्चाइयों के समाधान बताने वाली, जीवन में उत्साह, सकारात्मक सोच देने वाली रचनाएं लेकर ही बाल पाठकों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। आज की चुनौतियों का सामना करने के लिए बच्चों को स्वस्थ दिशा-निर्देश देना होगा-उपदेश से नहीं, उनके अपने जीवन और आस-पास के घटते घटनाचक्र के माध्यम से। 

मुझे सदैव इस बात की भी प्रसन्नता रही है कि श्री दीनदयाल शर्मा ने अपने बाल-साहित्य में मनोरंजन और विज्ञान के साथ-साथ सीख और परंपरा को नकारा नहीं है, बल्कि इन सबका सम्मान, स्वीकारोक्ति भाव से, समुचित व परस्पर सामंजस्य बनाए हुए वे बाल साहित्य की रचना कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह एक बहुत बड़ी बात है। इसलिए भी कि जब महानगर की सीमेंट-कंक्रीट वाली संस्कृति से जुड़े बाल-साहित्यकार के लेखन में से वे विषय तेज़ी से आगे बढऩे के चक्कर में पीछे छूटते जा रहे हैं, जिनमें शामिल है हमारे खेत-खलिहान, गांव, कस्बे, छोटे शहर, समाज, घर-परिवार। दीनदयाल शर्मा अपनी रचनाओं में इन्हें भी साथ लेकर चलते हैं। 

हनुमानगढ़ निवासी कलम का यह सिपाही आज देश में बाल साहित्य का सशक्त हस्ताक्षर है। इस प्यारे इन्सान, संजीदा और बच्चों-बड़ों में समान लोकप्रिय साहित्यकार की लेखनी से उपजी रचनाएं इसी प्रकार हमें मिलती रहेंगी, ऐसी आशा है। हिंदी व राजस्थानी में समानांतर लेखन वाले, अनेक पुस्तकों के रचयिता दीनदयाल शर्मा की कलम को मेरा भी सलाम पहुंचे। हार्दिक शुभकामनाएं। 

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, शिप्रा पथ, 
मानसरोवर, जयपुर



1-15 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार




Saturday, July 17, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -20


बाल साहित्य के क्षेत्र में 
विशिष्ट स्थान रखते हैं दीनदयाल शर्मा

हिन्दी एवं राजस्थानी बाल साहित्य में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं श्री दीनदयाल शर्मा। हिन्दी राजस्थानी भाषा में आपकी अनेक कृतियां प्रकाशित हैं। कुछ रचनाओं का अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। 

बाल साहित्य के अलावा  कविता, नाटक, कथा, हास्य व्यंग्य आदि अनेक विधाओं पर आपने कलम चलाई है। आपके लिखे कई नाटक विभिन्न शहरों-गांवों में मंचित हुए हैं, वहीं आकाशवाणी से राज्य स्तर पर समय-समय पर प्रसारित हुए हैं। पगली, मुझे माफ कर दो, उसकी सजा आदि नाटक सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष करते हैं। साथ ही समाज को एक संदेश भी देते हैं। 

हास्य रचनाओं में आपके 'सेन्स ऑफ ह्यूमर' का पता चलता है। दैनंदिन बातों मं से हास्य निकालने में आपको महारत हासिल है। आपकी हास्य रचनाओं को पढ़कर या सुनकर कोई बिना हंसे या मुस्कुराए रह ही नहीं सकता। आपके व्यंग्य इतने तीखे एवं सटीक होते हैं कि व्यक्ति सोचने पर मजबूर हो जाता है। कोई भी घटना जिस पर व्यंग्य किया जा सकता है, आपकी नज़र से बच नहीं पाया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, प्रशासन, व्यापार जहां भी आपको अनुचित कार्य होता दिखाई देता है, आपकी कलम उस पर तुरंत कटाक्ष करती है। 

लेकिन बाल साहित्य में आपकी विशेष रूचि है। आपने बाल साहित्य में संपूर्ण भारत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। बाल साहित्य के क्षेत्र में पहला पाक्षिक अ$खबार 'टाबर टोल़ी' को आरंभ करवाने का श्रेय भी आपको ही हासिल है। आप इस बाल पत्र के मानद संपादक हैं। इस पाक्षिक बाल अखबार में आप बहुत ही ज्ञानोपयोगी जानकारी उपलब्ध करवाकर बच्चों में अच्छे संस्कार डालने एवं साहित्य के प्रति रूचि बढ़ाने का अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने में लगे हुए हैं। जिसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। आपने 'टाबर टोल़ी' को झोंपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचाया है। दो- दो राष्ट्रपतियों से मुलाकात करना और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम द्वारा 2005 में आपकी किताब 'द ड्रीम्स' का लोकार्पण करना .....यह सौभाग्य किसी विरले लेखक को ही मिलता है। 

साहित्य सृजन के साथ-साथ पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियां भी आप बखूबी निभा रहे हैं। आपके भीतर बैठा कलाकार सिर्फ विद्यालय तक ही कैसे सीमित रह सकता है। आप अनेकानेक साहित्यिक संस्थाओं में पदाधिकारी हैं। साथ ही आप नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन देने के लिए नियमित रूप से संगोष्ठियां, पुस्तक चर्चा व कविता पाठ जैसे  आयोजन भी समय-समय पर करते हुए साहित्य सेवा में रत हैं। आप आकाशवाणी  व दूरदर्शन पर अपनी रचनाओं को पेश कर श्रोता/दर्शकों को लाभान्वित करते रहते हैं। 

बाल  साहित्य में आपकी रूचि एवं इस क्षेत्र में आपके कार्यों के कारण आप भारत के बाल साहित्यकारों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। आपको विभिन्न संस्थाओं एवं अकादमियों द्वारा समय-समय पर सम्मानित एवं पुरस्कृत किया है। जो आपकी साहित्यिक सेवा का ही फल है। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

अर्जुनदान चारण, 
सहायक वन संरक्षक,
फलौदी, जिला: जोधपुर, राज.
मोबाइल : 09414482882

16 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार टाबर टोळी से साभार

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -19

दीनदयाल शर्मा : एक कर्मठ बाल साहित्यकार

प्रिय अनुज दीनदयाल शर्मा को मैं पिछले दो दशकों से जानता हंू। मैंने सदैव इन्हें एक उत्साही बाल साहित्यकार के रूप में देखा है और ये आज भी उसी उत्साह, उमंग और निश्छलता के सम्य बाल सहित्य की सच्ची सेवा करने में जुटे हैं। निरंतर लेखन और प्रकाशन में लीन हैं। मैं उनकी लगन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करता हंू। ये बच्चों के उत्थान में दैनंदिन लगे रहते हैं। आलस्य और सुस्ती का कहीं कोई नाम निशान नहीं।

बच्चों के लिए भरपूर साहित्य सृजन करने वाले प्रिय भाई दीनदयाल राजस्थान के बाल साहित्यकारों में अपना नाम स्थापित कर चुके हैँ और उत्तरी भारत में बाल साहित्य का दीपक प्रज्ज्वलित करने वाले अग्रणी बाल साहित्यकार हैं। टाबर टोल़ी पाक्षिक अब एक जाना-माना पत्र बन चुका है और इसका श्रीगणेश भाई दीनदयाल जी के निर्देशन में हुआ। टाबर टोल़ी अपने ढंग का एक अनूठा पत्र है। इसके नाम से स्पष्ट हो जाता है कि यह शुद्ध रूप से बच्चों का, बच्चों के लिए और अभिभावकों के लिए हैं। स्वयं बच्चे इस पत्र में छपते रहे हैं।

एक अच्छा बाल साहित्कार होने के लिए सर्वप्रथम एक अच्छा व्यक्ति होना अनिवार्य है। भाई दीनदयाल जी शुद्ध  आचरण वाले तथा सरल व्यक्ति हैं और इन्हीं गुणों के कारण वे उत्कृष्ट साहित्य रचने में सफल हुए हैं और भविष्य में मील के कई पत्थर स्थापित करेंगे। 

मैं भाई दीनदयाल जी के इस विचार से सहमत हंू कि आज हर कोई बाल साहित्यकार बनने में जुटा है या यों कहें कि बाल साहित्य में घुसपैठ हो रही है। मैं ऐसे कई तथाकथित बाल साहित्यकारों को जानता हंू जो प्रौढ़ों के लिए लिखने का प्रयास किया करते थे। वहां असफल होने पर बाल साहित्य में आकर घुस गए। जबकि बच्चों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है।

जब आप बच्चों के क्रियाकलापों को नियमित नहीं देखेंगे तथा उनके संपर्क में नहीं रहेंगे तो आप बाल साहित्यकार बन ही नहीं सकते। अत: बच्चों का साहचर्य, बच्चों के स्नेह और प्यार को प्राप्त करना अत्यावश्यक है।

इस संक्षिप्त लेख के अंत में भाई दीनदयाल जी के स्वस्थ, दीर्घ और उज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना करता हंू। बाल गोपाल मण्डली, जो टाबर टोल़ी से जुड़ी हुई है, को ढेर सारी शुभकामनाएं अर्पित करता हंू। बाल देवो भव:।

रामनिरंजन शर्मा 'ठिमाऊ',
पिलानी, जिला: झुंझुनूं, राज.
मोबाइल : 9413484840

16 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार टाबर टोळी से साभार

Friday, July 16, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -18

सीधे-सरल और हंसोड़ प्रवृत्ति के 
इन्सान हैं दीनदयाल शर्मा

लेखन यात्रा के शुरुआती कदम थे। बाल कहानियां लिखता था। कदम डगमगाते, संतुलन बिगड़ता तो भाई राकेश शरमा (अब दिवंगत) और मासूम गंगानगरी अंगुली थाम कर गिरने से बचाते। राज्य व राष्ट्रीय स्तर की कुछ पत्र-पत्रिकाओं में बाल कहानियां छपी तो मित्रों ने राय दी कि बाल कथा संग्रह छपवाया जाए। अनुभव था नहीं, किसी ने बताया कि हनुमानगढ़ में दीनदयाल शर्मा हैं, वे प्रकाशन में मार्गदर्शन कर देंगे और पुस्तक छपवा भी देंगे। 

संयोग से अगले दिन राजस्थान पत्रिका में दीनदयाल शर्मा की कविताएं छपीं। नीचे पता भी छपा था। मैंने एक पोस्टकार्ड डाल कर एक पुस्तक छपवाने की इच्छा जताई। चार दिन बाद ही जवाब मिला, इस उलाहने के साथ कि आपने मेरा पता राजस्थान पत्रिका से लिया लेकिन कविताओं का जि़क्र ही नहीं किया। मैं अनाड़ी आदमी, उस समय न तो कविता पर टिप्पणी करनी आती थी और न ही इतनी समझ थी कि कविताओं से बात शुरू कर पुस्तक तक आना चाहिए। 

खैर! दीनदयाल जी ने हनुमानगढ़ आकर मिलने का न्यौता दिया तो एक रविवार को बाल कथाओं की पांडुलिपि लेकर पहुंच गया उनके घर। दीनदयाल शर्मा व भाभीजी ने पूरी आवभगत की। तीन घण्टे की बैठक में दीनदयाल जी ने मुझे स्पष्ट राय दी कि मैं नया हंू। मुझे किताब छपवाने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। फिर भी मेरा दिल रखने के लिए उन्होंने पांडुलिपि रख ली। 

बाद में उनमें से मेरी एक बाल कहानी उन्होंने अपने संपादन में निकले कुछ बाल कथाकारों के संकलन में भी शामिल की। इस बीच मेरा भी विचार बना कि मैं पुस्तक छपवाने की जल्दी न करूं। मैंने दीनदयाल जी को पत्र लिखकर पांडुलिपि मांगी। उन्होंने बताया कि बाल कथा संग्रह संपादन के दौरान वह पांडुलिपि दिल्ली ले गए थे और वह पांडुलिपि अब भी दिल्ली में एक प्रेस पर पड़ी है। 

पांडुलिपि मांगने का यह सिलसिला साल भर तक चला और एक दिन दीनदयाल जी ने बताया कि जमुना में बाढ़ आने से वह पांडुलिपि व प्रेस की बहुत सारी सामग्री बह गई है। अब वह नहीं मिल सकती। यह बात 1987-88 की है। दो दशक से भी ऊपर समय बीत जाने के बाद मुझे लगता है कि जमुना की बाढ़ में बही मेरी बाल कथाओं की पांडुलिपि ने दीनदयाल शर्मा से मेरी मित्रता और भी गहरा कर दिया है।

इलाहाबाद में जब मुझे मीरा स्मृति सम्मान मिला तो अपनी 85 वर्षीया माताश्री के साथ दीनदयाल जी व भाभीजी श्रीमती कमलेश शर्मा के सान्निध्य में तीन-चार दिन प्रयाग धाम में रहने का अवसर मिला।  उन दिनों को मेरी मां आज भी याद करती है। मेरी मां का जितना ख्याल दीनदयाल जी व भाभीजी ने रखा, उतना मैं स्वयं भी नहीं रख पाया। उन दिनों की स्मृति ही हमारी पूंजी है।

दीनदयाल शर्मा सीधे-सरल और हंसोड़ प्रवृत्ति के इन्सान हैं। हर बात पर चुटकला उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है, मुझे लगता है कि जिस स्कूल में वे कार्यरत हैं, वहां के बच्चे कितना कुछ सीखते होंगे इस सरल हृदयी इन्सान से। आमीन।

कृष्णकुमार 'आशु', पत्रकार व साहित्यकार
128, मुन्शी प्रेमचन्द कॉलोनी, 
माइक्रोवेव टावर के पास, 
पुरानी आबादी, श्रीगंगानगर
मो. 9414658290
9772608000

16 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार टाबर टोळी से साभार

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -17

बहुमुखी प्रतिभा के धनी : दीनदयाल शर्मा

'टाबर टोल़ी' का अंक जब-जब पढऩे का सौभाग्य मिला......मैं श्री दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखित रचना या कॉलम ढंूढ़ता रहा। आओ सीखें : शुद्ध लेखन हो या समीक्षा, लेख हो या कविता, हिन्दी में हो या राजस्थानी में....वे प्रभावी लिखते हैं और पाठक पर छाप छोडऩे वाला लेखन करते हैं। बच्चों के लिए तो वे निरन्तर लिखते रहे हैं और सम्मानित-पुरस्कृत होते रहे हैं। यह एक गौरवपूर्ण बात हैं वे इस तन्मयता से सृजनरत हैं और साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं।

'टाबर टोल़ी' के माध्यम से नया कीर्तिमान रचा है। अपनी संपादकीय सूझबूझ से उन्होंने अनेकानेक लेखकों-कवियों को जोड़ा है और विपुल साहित्य प्रस्तुत किया है। एक बाल-पत्र को नियमितता देकर राज्य में बाल साहित्य के रचनाकारों को मंच प्रदान किया है।

इतनी-इतनी उपलब्धियों के बाद भी वे विनम्र हैं, समर्पित हैं एवं आदर्श हैं। बाल साहित्य में उनका नाम सम्मान के साथ जुड़ा है। देशभर में अपनी पहचान बनाने वाले श्री दीनदयाल शर्मा उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर बढ़ रहे हैं। पर, अकेले नहीं, कई रचनाधर्मी मित्रों को साथ लेकर।

एक तथ्य जो मैंने महसूस किया वे जोड़ तोड़ से ऊपर हैं। कोई भी रचनाकार हो, उसे उचित सम्मान देते हैं चाहे परिचित हो या न हो। खेमेबाजी से दूर रह कर ही वे इतना कुछ श्रेष्ठ कर पाये हैं। उनकी पुस्तकों पर मेरे अन्य मित्रों ने विस्तार से चर्चा की है। वे नि:संदेह प्रशंसा के योग्य हैं। अनेक शुभकामनाएं ऐसे रचनाकार के लिए।

-डॉ.विनोद सोमानी 'हंस',
42/43, जीवन विहार कॉलोनी, 
आना सागर सरक्यूलर रोड, 
अजमेर-305004, राज.
दूरभाष : 0145-2627479

16 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार 'टाबर टोल़ी' से साभार


दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -16

संवेदनशील बाल साहित्यकार : 
श्री दीनदयाल शर्मा

वरिष्ठ बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा को बाल साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ हस्ताक्षर कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कृतियों के रचयिता शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। मान-सम्मान, पुरस्कार में कई उपलब्धियां हासिल कर चुके शर्मा अपनी बेबाक शैली के लिए भी जाने जाते हैं। राजकीय सेवा में होने के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से उनका जनजुड़ाव प्रेरणास्पद है। ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले-बढ़े शर्मा ने शैक्षिक दृष्टिकोण से उदाहरण प्रस्तुत किया है। सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की है।

संवेदनशील साहित्यकार:
शर्मा की कृतियां बच्चों के लिए प्रेरणास्पद होने के साथ-साथ मनोरंजन की दृष्टि से भी उच्च कोटि की है। 'कर दो बस्ता हल्का' पुस्तक जहां बाल-गोपालों को हास्य से विभोर करवाती है, वहीं प्रेरणादायक भी है। 'चमत्कारी चूर्ण' पुस्तक की कहानियां भी कमोबेश यही छाप छोड़ती हैं। इस पुस्तक की कहानी 'आज़ादी का अर्थ' शर्मा के संवेदनशील लेखक होने का अहसास करवाती है। राजस्थानी बाल एकांकी 'म्हारा गुरुजी' में उन्होंने जिस विनोदी अंदाज में शिक्षकों की कार्य प्रणाली को उजागर किया है, वह शर्मा की बेबाक लेखनी की ओर इशारा है।  

मातृभाषा के प्रति लगाव: 
शर्मा का मातृभाषा के प्रति लगाव उल्लेखनीय है। यही कारण है कि हिन्दी में लेखकीय कार्य में विशेष स्थान होने के साथ-साथ राजस्थानी भाषा पर भी उनकी विशेष पकड़ है। राजस्थानी में उनकी पुस्तकें विशेष सराहनीय है। 'शंखेसर रा सींग' राजस्थानी बाल नाटक उनकी मातृ भाषा के प्रति समर्पण की जीवंत मिसाल है। बकौल शर्मा, 'जब तक मनुष्य अपनी मातृभाषा से नहीं जुड़ेगा, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भी नहीं होगा। यही कारण है कि वह राजस्थानी भाषा के मान्यता आंदोलन में सक्रियता सहभागिता निभा रहे हैं।

सादा जीवन उच्च विचार :
सादा जीवन उच्च विचार की अवधारणा को साक्षात जीवन में उतरते देखना हो तो दीनदयाल शर्मा उदाहरण हैं। दिखावे एवं आडम्बरों से कोसों दूर रहने वाले शर्मा सब के प्रति समान भाव रखते हैं। समय के पाबन्द शर्मा कैसी भी परिस्थितियां हों निर्धारित समय पर पहुंचते हैं। वर्ष 2007 में एकता मंच द्वारा आयोजित होली स्नेह मिलन की घटना उनके समय के कद्रदान होने की शिनाख्त करती है। आयोजक निर्धारित समय पर अभी तैयारियां ही कर रहे थे, कि शर्मा दो किलोमीटर दूर अपने घर से पैदल चलकर कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गए। 

प्रोत्साहन में अग्रणी: 
युवा लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, पत्रकारों को प्रोत्साहन देने में दीनदयाल शर्मा हमेशा अग्रणी रहे हैं। उनका मानना है कि संघर्ष के दौर में हर किसी को सहयोग की आवश्यकता होती है। ऐसे में वरिष्ठजन सहयोग नहीं करेंगे तो युवा कैसे आगे बढ़ेंगे। यही कारण है कि साहित्य सम्मेलनों, कवि गोष्ठियों के लिए आर्थिक सहयोग के साथ-साथ उचित मंच में युवा लेखकों के आलेख प्रकाशित करवाने में उनका मार्गदर्शन हमेशा बना रहता है। उनके मार्गदर्शन में चलने वाले राजस्थान बाल कल्याण परिषद्, टाबर टोल़ी एवं सम्पर्क प्रकाशन ने दर्जनों उभरते लेखकों-कवियों को पुस्तक प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया है। 

हंसो और हंसाओ : 
दीनदयाल शर्मा कहते हैं हंसना जीवन में उसी प्रकार जरूरी है जैसे खाना-पीना आवश्यक है। बकौल उनके हंसना स्वस्थ शरीर के लिए टॉनिक का कार्य करता है। वर्तमान समय में जब प्रतिस्पद्र्धा चरम पर है सब कोई तनावमय जीवन जी रहा है, ऐसे में उनका लतीफों के माध्यम से हंसी की फुहार छोडऩा सबको अपनी तरफ आकर्षित करता है। साहित्य सम्मेलनों-कवि गोष्ठियों और कार्यक्रमों में भी शर्मा बात ही बात में ऐसी बात कह देते हैं कि गंभीर से गंभीर प्रवृत्ति का श्ख्स भी मुस्करा देता है। शर्मा के अनुसार हंसो और हंसाओ ही जि़न्दगी का फलसफा है। 

पुस्तकों को प्रोत्साहन देने की अनोखी ललक: 
शर्मा पुस्तकों के पठन पर ज्यादा जोर देते हैं। उनके अनुसार पुस्तकें ज्ञान का भण्डार है। इन्हें जितना ज्यादा पढ़ेंगे, उतना ही बौद्धिक विकास होगा, पुस्तकों के प्रति इस लगाव का परिणाम है कि उन्होंने पांच साल पहने अपने बूते पर गांव-गांव पुस्तक मेले लगा कर साहित्यिक पुस्तकें वितरित की। अपने थैले में पुस्तकें डाल कर नफे-नुकसान की परवाह किए बिना उन्होंने पुस्तक मेलों में पुस्तकें बांटी। हनुमानगढ़ क्षेत्र में आपने साक्षरता केन्द्रों पर 51,000 की साहित्यिक पुस्तकें नि:शुल्क देने पर इन्हें जयपुर के बिड़ला सभागार में सर्वाधिक पुस्तक दानदाता के सम्मान से नवाजा गया। ऐसे पुस्तक प्रेमी एवं वरिष्ठ साहित्यकार को नमस्कार।

मनोज गोयल , पत्रकार, 
हनुमानगढ़-335512

16 अप्रैल, 2010, टाबर टोळी से साभार

Monday, July 5, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -15




बाल सुलभ व्यवहार : 
भगवान की अप्रतिम भेंट

श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ के पाठकों को श्रेय जाता है 'पंचमेल' स्तंभ की शुरूआत और इसे निरंतर जारी रखने का। पाठकों की हर सप्ताह मिलने वाली प्रतिक्रिया का ही दबाव रहा कि 'पंचमेल' किसी सप्ताह मिस नहीं कर पाया। मन ही मन लगता था इस बार नहीं लिखा तो समाज में नाक कटने जैसी हालत होजाएगी। 'पंचमेल' के ही कारण जिन सज्जन  लोगों से संवाद, निरंतरता और फेस टू फेस पहचान की स्थिति  बनी उस सूची में श्री दीनदयाल शर्मा का नाम भी प्रमुख है। शर्माजी से फोन पर पंचमेल को लेकर लगभग हर सप्ताह चर्चा होती थी। 

एक बार हनुमानगढ़ के तत्कालीन जिला कलेक्टर नवीन जैन के चित्रों के साथ हनुमानगढ़ में काव्यात्मक नुमाइश लगी थी। मैं भी सपरिवार गया था। सोचकर गया था कि चित्रों की नुमाइश के बहाने हनुमानगढ़ के साहित्यकारों से मुलाकात हो जाएगी। लेकिन वहां जितनी भी देर रुका तो वरिष्ठ पत्रकार होने के सारे भ्रम दूर हो गए । वैसे भी जहां कलेक्टर सपत्नीक उपस्थित हों , वहां तो बाकी लोगों पर तभी नजर जाती है जब लालबत्तियां दूर चली जाएं। मेरी ही तरह दीनदयाल जी भी एक कोने में खड़े थे। मैं तो पहचान नहीं पाया। वे सहजता से आए, अपना परिचय दिया तब जाना कि ये हैं 'टाबर टोल़ी' के सर्वेसर्वा। मीरा के भजन की पंक्ति है 'घायल की गति घायल जाने, की जिन लागी होय...' हम दोनों एक-दूसरे के भाव-पीड़ा मन ही मन समझ गए। मैं तो कुछ देर में चुपचाप वहां से रवाना हो गया। बाद में दीनदयाल जी का फोन आया, मैं आपको खोज रहा था, आपसे बात ही नहीं हो पाई।
    
'टाबर टोल़ी' मुझे नियमित मिलने लगा, मुझे इस अ$खबार में उनकी मेहनत हर पेज और एक-एक  पंक्ति में नज़र आती है। बच्चों के लिए समर्पित टाबर टोल़ी के अंक से शुद्ध हिंदी कैसे लिखें यह भी समझा जा सकता है। शुद्ध और अशुद्ध वाक्यों के कॉलम से  कई बार मुझे भी शब्द दोष सुधारने में सहायता मिली है। मैंने तो चर्चा में कई बार उन्हें सुझाव भी दिया है कि उन्हें शुद्ध-अशुद्ध शब्दों वाले इस कॉलम के संग्रह को पुस्तक रूप देना चाहिए। दीनदयाल जी सिद्धहस्त बाल साहित्यकार-व्यंग्यकार हैं लेकिन घमंड उन्हें छू भी नहीं पाया है। साहित्यकारों में कई बार यह ठसक देखने को मिल जाती है लेकिन उनमें ऐसे लक्षण तक देखने को नहीं मिलते, तो शायद इसका एकमात्र कारण उनका बाल साहित्यकार होना है। बच्चे भी तो निंदा-घमण्ड-तेरा-मेरा की भावना से मुक्त होते हैं।
   
 एक दिन शर्मा जी का फोन आया- मैं आप से मिलने आ रहा हूं। जो समय तय था उस समय पहुंच नहीं पाए क्योंकि जब आप किसी के बस में होते हैं तब बेबस हो जाते हैं। शर्मा जी तो बस से आ रहे थे। विलंब के कारण वे रास्ते भर फोन करते रहे और अपनी मजबूरी बताते रहे। कार्यालय आए भी तो वही दीन भाव था कि समय पर नहीं पहुंच सका। आज के ज़माने में कौन इतना सोचता है जबकि निर्धारित समय से आधे-एक घण्टे विलम्ब से पहुंचना तो जन्मसिद्ध अधिकार जैसा हो गया है। पेशे से अध्यापक-पुस्तकालयाध्यक्ष दीनदयाल जी से बातें शुरू करो तो समय का पता ही नहीं चलता। वे बिल्कुल बच्चों की तरह सहजता, उत्सुकता से सुनते-समझते और बोलते हैं। 

मुझे श्रीगंगानगर में दो वर्ष के कार्यकाल में जो याद रखे जाने वाले लोग मिले उनमें दीनदयाल जी अपने व्यवहार, साफग़ोई, निष्कपट शैली और पाक्षिक अखबार टाबर टोल़ी के लिए की जाने वाली मेहनत के कारण सदैव याद रहेंगे। आजकल तो एकाध पुरस्कार-सम्मान मिलने के बाद ही शरीर कलफ लगे कपड़ों की तरह अकड़ा रहता है लेकिन इतने पुरस्कार, सम्मान, साहित्य प्रकाशन के बाद भी दीनदयाल जी बच्चे ही नज़र आते हैं। मुझे तो लगता है यदि बाकी लोगों को अहं विरासत में मिलता है तो उन्हें यह बाल सुलभ व्यवहार भगवान की अप्रतिम भेंट के रूप में मिला है। कोई इतना सहज भी हो सकता है, उन्हें देखकर फिर यह सिद्ध हो जाता है कि जो अपने कार्य क्षेत्र में जितना बड़ा है उतना ही सहज भी होता है। 

भास्कर कार्यालय आए तो करीब पौन घण्टे बातचीत चलती रही, जाने से पहले कैमरा निकाला और बड़े ही आत्मीय अनुरोध के साथ एक फोटो भी लिया। वो दोनों का फोटो लेकर खुश हो रहे थे और मैं चाहते हुए भी नहीं कह पा रहा था कि शर्माजी एक फोटो मुझे भी भेजना। उनकी सहजता के आगे मैं खुद को असहज महसूस कर रहा था। शायद इसीलिए मैं नहीं कह पाया। 

देशभर के साहित्यकारों, प्रतिष्ठितजन से आत्मीय संबंध रखने और संबंध निभाने वाले शर्माजी जयपुर, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता बस गए होते तो उनका कद-पद और बढ़ जाता पर यह अपनी मिट्टी के प्रति जुड़ाव ही है कि वे हनुमानगढ़ नहीं छोड़ पाते। इससे हनुमानगढ़ का मान भी बढ़ा है और देश में हनुमानगढ़ को दीनदयाल जी के कारण पहचान भी मिली है। 

कीर्ति राणा, प्रभारी संपादक, दैनिक भास्कर, श्रीगंगानगर, वर्तमान : शिमला
मोबाइल : 09816063636












Sunday, June 20, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -14

बाल कथा के सुरीले गायक : दीनदयाल शर्मा

श्री दीनदयाल शर्मा संभवत: एक मात्र ऐसे बाल साहित्यकार हैं, जिनकी अंग्रेजी नाट्य कृति "The Dreams" को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम के कर कमलों से लोकार्पण का सौभाग्य प्राप्त है। लोकार्पण भी ऐसा आह्लादकारी कि कृति की थीम सुनते ही महामहिम के मुख से अनायास ही निकल पड़ा- EXCELLENT.... यह शायद समीक्षा थी-एक श्रेष्ठ कृति की, एक उद्भट द्वारा, मात्र एक शब्द में एक कृति की ऐसी विशद्, विस्तृत और सटीक व्याख्या और कौन कर कर सकता है- डॉ. कलाम जैसे प्रखर चिन्तक के अलावा। ऐसे प्रबुद्ध व्यक्ति ही किसी रचना के मर्म को पहचान कर उसके सर्वांगीण मूल्यांकन हेतु ऐसे किसी एक सार्थक शब्द की शोध करते हैं।
वैसे तो दीनदयाल शर्मा ने  व्यंग्य, नाटक, एकांकी, निबन्ध, पत्रकारिता आदि साहित्य की अनेक विधाओं में अभिनव प्रयोग किए हैं, लेकिन उनका मन विशेष रूप से बाल कविताओं और बाल कहानियों के लेखन में रमा है। श्री शर्मा की यह अपनी विशेषता रही है कि वे कथा को कहते नहीं, अपितु गाते हैं जिससे उसमें एक निश्चित प्रवाह, लय, गति और छन्दमयी गेयता स्वत: आती चली जाती है और कहानी कविता का आनन्द देने लगती है।
श्री शर्मा की कविताओं में स्थितियां बहुत शीघ्रता से बदलती हैं। वे कभी सतरंगी हो जाती हैं, तो कभी बहुरंगी। कभी-कभी उनकी कविता केवल एक खूबसूरत चित्र होती है-खिलते हुए फूल का, चहचहाती हुई चिडिय़ा का, बच्चे के अधरों पर फैली पवित्र मुस्कान का या उसकी आंखों में अनायास उमड़ आये निर्मल आंसुओं का।  दीनदयाल शर्मा इन चित्रों को इतनी कुशलता से उकेरते हैं कि एक बार जब इनके चटक रंग उनके शब्दों से तादाम्य स्थापित कर लेते हैं, तो देखने वाले की दृष्टि उस आकर्षण के जादू से सहज मुक्त नहीं हो पाती।
कभी-कभी उनकी कविता संक्षिप्त कथा संदर्भ लिए लघु आख्यायिका सी प्रतीत होती है, तो कभी कोई विराट् संदेश अपने में छिपाये सूक्ति कथन सी। उनकी कविता कभी उपदेश नहीं होती। शिक्षाप्रद होना या बोध परक होना अलग बात है। निर्णय लेना कठिन होता है कि कविता उन्होंने बच्चों के लिए लिखी है, बड़ों के लिए, गुरुजन के लिए या अभिभावकों के लिए। एक उदाहरण याद आता है। कविता थी-
बस्ता भारी
मन है भारी
कर दो बस्ता हल्का
मन हो जाए फुलका।

मन कभी फुलका नहीं होता, इसे तीसरी पंक्ति के हल्का शब्द से जोडऩा पड़ेगा। फिर आप इसके दोनों अर्थ लेने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे कि बस्ता हल्का होते ही बच्चे का मन भी फुलके के समान हल्का-फुलका हो जाएगा। चार पंक्तियों की यह कविता एक निजी स्कूल के संचालक को इतनी पसंद आई कि उसने इसके पोस्टर छपवा कर सारे शहर में बंटवा दिये। अस्तु।
मंच की महारत तो दीनदयाल शर्मा को हासिल है ही। कवि सम्मेलन चाहे ग्रामीण क्षेत्र का हो या, चाहे शहरी क्षेत्र का। अपनी हास्य व्यंग्य कविताओं के साथ जब वे मंच पर पदार्पण करते हैं, तो जोरदार तालियों की गडग़ड़ाहट उनका भव्य स्वागत करती है।  फिर एक के बाद एक फरमाइशी कविताओं की झड़ी लग जाती है, जिन्हें बच्चे, बूढ़े, नौजवान सब एक सी एकाग्रता और तन्मयता से सुनते हैं-ठहाके लगाते हैं, आनंदित होते हैं।
 'टाबर टोल़ी' विगत सात वर्षों से अनवरत छप ही रही है। पूरी पत्रिका में  दीनदयाल शर्मा के बहुआयामी व्यक्तित्व की गहरी छाप तथा इनके पूरे परिवार के परिश्रम की मुंह बोलती तसवीर स्पष्ट झलकती है। इसीलिए अब यह मात्र बच्चों की ही पत्रिका नहीं रह गई है। द्वितीय वेतन श्रंृखला हिन्दी अध्यापक पद के लिए राजस्थान लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों की दृष्टि एक दिन टाबर टोल़ी पर पड़ गई, तो बोले-यह हमें मिल सकती है सर? मेरे मुंह से निकला-यह तो बच्चों की पत्रिका है।
नहीं सर, अशुद्धि संशोधन के रूप में इसमें शब्दों के शुद्ध रूप दे रखे हैं और सामान्यज्ञान के 100 प्रश्न भी। यह तो हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है सर। और वे सभी विद्यार्थी 50-50 रुपये वार्षिक शुल्क ले आए। अत: मैंने सभी का   वार्षिक शुल्क  भिजवाया, तो उन्हें बड़ी निश्चिंतता और संतुष्टि मिली।
कहना चाहिए कि दीनदयाल शर्मा केवल एक कवि, व्यंग्यकार या बाल साहित्यकार ही नहीं, अपितु अपने आपमें एक साहित्यिक अनुष्ठान, नये रचनाकारों के लिए प्रेरणापुंज और साहित्य मनीषियों के लिए एक चलता-फिरता सृजनधर्मी प्रतिष्ठान है। 

जनकराज पारीक,
29, मण्डी ब्लॉक, 
श्रीकरणपुर-335073
मोबाइल : 09414452728

(श्री पारीक जी वरिष्ठ कथाकार, कवि एवं गीतकार हैं। आपकी कथा कृति 'शिकार तथा अन्य कहानियां' अकादमी से पुरस्कृत है। काव्य कृति 'अब आगे सुनो...' और 'सूखा गांव' काफी चर्चित रही है। आप राजस्थान साहित्य अकादमी की सरस्वती सभा के सदस्य रहे हैं। आप 40 वर्षों तक शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद की सेवाएं देकर वर्तमान में स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। इन दिनों आप कुछ अस्वस्थ हैं।)




दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -13

बाल साहित्य सृजन की अनूठी शैली 
के रचनाकार : दीनदयाल शर्मा

आपका दीद हो जाए और हमारी ईद हो जाए। पिछले 7-8 सालों से एक मधुर वाणी कानों में मिश्री सी घोल रही है। जी हां, मैं परम श्रद्धेय दीनदयाल शर्मा जी की ही बात कर रहा हंू। जब इनसे फोन/मोबाइल पर बात होती है तो मिलने के लिए दिल बेचैन होकर तड़पने लगता है। अफसोस.... उनके  दर्शन (दीद) से आज तक महरूम हंू। मगर उनके द्वारा की गई हौसला अफजाई और मार्ग दर्शन से साहित्य रूपी गुलशन में फल फूल रहा हंू। 
श्री शर्मा के व्यक्तित्व एवं सृजन से कई साहित्यकार एवं कार्यकर्ता प्रभावित हुए हैं। आत्मा की आवाज़ तो यह है कि आज न केवल राजस्थान बल्कि सम्पूर्ण भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में ऐसे ज्ञानवान पुरुष के प्रकाश पुंज ने 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' को अभिनव दृष्टि से भारत वर्ष को आलोकित किया है। 
बाल जगत के सितारों में श्री शर्मा जी एक अलग ही सूर्य हैं। जिसकी विसरित किरणें बिलौरी कांच पर एकत्रित होती हैं, वह है-टाबर टोल़ी (बच्चों का अखबार) , जो विगत कई वर्षों से राष्ट्रीय स्तर के नवांकुर साहित्यकारों एवं काव्यकारों को संचरित करता है।
श्रीयुत् दीनदयाल शर्मा के अनेक आलेख विभिन्न संकलनों, स्मारिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं, जिनमें उनकी कल्पना, चेतना और मेधा के दर्शन होते हैं। आप  सफल पत्रकार, कवि, साहित्यकार व वक्ता होने के साथ-साथ गृहस्थ पति व पिता भी हैं। 

आप अपने सभी दायित्वों का निर्वहन कुशलता के साथ कर रहे हैं। आपने समाज चिंतकों, सृजनधर्मी विचारकों व प्रबुद्धजन के साथ मिलकर एक बेहतर समाज बनाने के लिए संभव प्रयास किए हैं। आपकी श्लाघनीय सक्रियता व बाल साहित्य सृजन की अनूठी शैली से अभिभूत कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपार हर्ष की अनुभूति करता हंू। समाज और साहित्य को समर्पित इस विराट व्यक्तित्व के धनी श्री शर्मा जी के लिए मेरी कलम का लिखना सूर्य को दीपक बताने जैसा है।

मेरी एक विनम्र कामना है कि  आपका यही सार्थक चिंतन व सामाजिक भागीदारी का विराट दृष्टिकोण बना रहे। आप यशस्वी जीवन व सुख समृद्धि के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहें, आने वाली लम्बी आयु में हिन्दी भाषा बाल साहित्य, समाज एवं देश की अनवरत सेवा करते रहेंगे। यही हमारी अंतस की शुभकामनाएं हैं।

अब्दुल समद राही 
पुत्र अब्दुल सत्तार हाजी रहीम बख्श, 
सिलावट मौहल्ला, ढाल की गली, 

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 12



वह तराशता रहा मुझे..........

''गुझिया की गाय'' और  ''नंगा पहाड़'' कहानियां प्रमोद से सुनी। कहानियों में दिए गए विचारों एवं सोच में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। ....प्रथम कहानी में मुझे लगा जैसे इसमें कुछ छूट रहा है। दूसरी कहानी अंत तक बांधे रही। पूरी समीक्षा मैं अलग से दंूगा। शुभकामनाएं..............। दीनदयाल शर्मा, 26.5.87
.......हनुमानगढ़ आ छ: साल हो चुके थे। शब्द की अर्थवत्ता और उसकी सत्ता के स्वभाव की पड़ताल जारी थी। गंावों का अंधविश्वास, पिछड़ापन और हीनता लेकर मैं शहर आया था, पर धीरे-धीरे ये सब चीजें मेरे दामन से स्वत: ही छूटती चली गई। क्योंकि शहर में मुझे आते ही कुछ करीने लोग मिल गए थे। रविदत्त मोहता, मायामृग, संजय माधो, नरेश विद्यार्थी, राजेश चड्ढा, ओम पुरोहित, महेश सन्तुष्ट, सीमान्त, अमित यायावर और दीनदयाल शर्मा.......।
अक्सर जब मैं कोई कहानी लिख लेता तो उसे दिखाने के लिए उतावला हो कर पूरे शहर में घूमता था। कभी रविदत्त मोहता के पास, कभी मायामृग के पास, कभी ओम पुरोहित के पास तो कभी दीनदयाल शर्मा के पास.... और फिर लिखवा लेता उनसे कहानी पर टिप्पणी। ये टिप्पणियां दर्शाती है कि अस्सी के दशक में हनुमानगढ़ क्षेत्र में साहित्य और समालोचना को लेकर कितनी गंभीर चिंताएं साझा होती थीं। हालांकि हममें से किसी के पास टू व्हीलर नहीं था। फिर भी दूरियां कभी आड़े नहीं आयी। चाहे पैदल हो या साइकिल। ऑटो रिक्शा हो या सिटी बस। हम लोग एक तड़प के साथ एक दूसरे तक पहुंच जाते थे। ओम जी दुर्गा कॉलोनी, रविदत्त पी.डब्ल्यु.डी. कॉलोनी, राजेश चड्ढा सैक्टर-12 तो दीनदयाल जी मक्कासर में रहते थे। फिर भी ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब हम एक-दूसरे से मिलते नहीं थे। उन दिनों हम लोगों ने एक दूजे को तराशना शुरू कर दिया। हम लोग अपनी रचनाओं पर जमकर दंगल करते..फिर उनको लेकर प्रकाशन की योजनाएं बनाते...मन्सूबे बांधते और कल्पना के यथार्थ में गोते लगाते.....।
उन्हीं दिनों ओम पुरोहित, दीनदयाल शर्मा और मैंने, मिलकर राजस्थान साहित्य परिषद् बनाई। हमारी अंगुलियों से हर वक्त स्याही टपकती रहती। हम लोग तै कर चुके थे कि हमें एक श्रेष्ठ साहित्यकार बनना है। चंूकि संस्था बनी तो कार्यक्रम भी हुए। परिचर्चा, नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, विमोचन, आंचलिक समारोह...देखते ही देखते हम लोग रामकुमार ओझा, करणीदान बारहठ, मोहन आलोक, मंगत बादल और जनकराज पारीक इत्यादि से गहरे तक जुड़ते चले गए और हनुमानगढ़ पूरे क्षेत्र में सबसे चर्चित जगह होता चला गया।
इन्हीं दिनों आया मेरा पहला कहानी संग्रह-सच तो ये है.....। संपर्क प्रकाशन से छपी यह पुस्तक लेने के लिए मैं और दीनदयाल जी दिल्ली गए। अर्थाभाव और कम जानकारियों की दुविधा के बावजूद दिल्ली जैसी जगह में उनका आत्मविश्वास मुझे आज भी प्रेरणा देता है। यों तो शहर में अक्सर उनसे मिलता था, लेकिन दिल्ली में जिन दीनदयाल शर्मा से मुला$कात हुई...वे एक दूसरे ही दीनदयाल थे। मुझे नहीं मालूम था कि वे मुझे लेकर इतने जिम्मेदार और पीड़ा उठाने वाले हैं। उनके काम करने की पद्धति और समर्पण मुझे आज भी अपने प्रत्येक दायित्व के निर्वाह में सहायता प्रदान करते हैं।
चाहे दिल्ली हो या हनुमानगढ़, बीकानेर हो या रावतसर... दीनदयाल शर्मा के हाथों से दया, करुणा, परोपकार, उदारता, सत्यता इत्यादि सद्गुण कभी नहीं छूटे बल्कि ये गुण इनमें इतनी सघनता से भराव लेते हैं कि आस पास का पूरा वातावरण हन देवीय गुणों से स्पंदित हो जाता है..... कितने ही बच्चों को किताबें दीं, कितने ही लेखकों को सहायता दी, कितने ही घायलों की सेवा की, कितने ही पीडि़तों के लिए आंसू बहाए....ये सब इतना विस्तार चाहते हैं कि उन पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। लेकिन अगर संक्षेप में कहंू तो बात-बात पर भावुक हो जाने वाले दीनदयाल शर्मा के पास वह हृदय है, जिसकी कसमें खायी जा सके... फिर भी ऐसे बहुत से मौके आए जब हम दोस्तों में टक्कर हुई। कभी दीनदयाल जी नाराज़, कभी मैं तो कभी ओमजी। हम एक दूसरे की जमकर आलोचना करते और सच झूठ का सारा नतीजा निकलने तक मैदान में डटे रहते। इस बीच कभी कभी हम लोग कई-कई दिनों तक एक -दूसरे से नाराज़ रहते.... लेकिन हमारा प्यार कभी कम नहीं हुआ..... नाराज़गी की बात चली है तो एक किस्सा.....।
जुलाई 1986 में दीनदयाल जी मक्कासर से हनुमानगढ़ आ गए। सैक्टर 12 में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगे। एक दोपहर मैं और ओमजी पहुचे उनके कमरे पर। दीनदयाल जी नदारद। बड़ा सारा ताला। हमने निर्णय किया कि  इतनी दूर से चलकर आए हैं वापिस तो नहीं जाएंगे...यहीं इन्तज़ार करते हैं और हमने कमरे का ताला तोड़ा...और भीतर जाकर बैठ गए जमकर। कागज खराब किए ...हलुवा बनाकर खाया...गीत गाए...और जब दीनदयाल जी आए तो बहुत गुस्सा हुए और बहुत दिनों तक गुस्से में रहे....पता नहीं वह क्या वजह रही होगी कि हमारे भीतर परमात्मा ने ऐसी नजदीकियां पैदा की...लेकिन जहां तक मैं समझता हंू ये सब घटनाएं एक दूसरे को तराशने के लिए थीं.....। उस घटना से सबक लेकर फिर मैंने कभी दीनदयाल जी का दिल नहीं दुखाया और उनके प्रति ऐसा कोई काम नहीं किया जिसमें उनकी आस्था नहीं...।
जहां तक उनकी आस्थाओं का प्रश्न है वे मनुष्य के अस्तित्व पर टिकी हैं। दीनदयाल शर्मा मनुष्य के आकार प्रकार में किसी भी तरह की कमी को स्वीकार नहीं करते हैं बल्कि हमेशा पूरा देखना चाहते हैं। उनका साहित्य मनुष्य और मनुष्यता में विश्वास का साहित्य है। वे कहीं अति सरल हृदय के साथ बच्चों के लिए कविताएं और कहानियां लिखते हैं तो कहीं माथे पर भृकुटि तानकर व्यंग्य कहते हैं। कहीं वे रेडियो नाटक लेकर हाजि़र हो जाते हैं...कहीं वे चुटकुले सुनाने लगते हैं... सचमुच ऐसा भरा-भरा सा निगर आदमी समाज के लिए उपलब्धि है। हालांकि यह भरा-भरा सा आदमी तब बहुत खिन्न और तिड़का हुआ  आदमी बन जाता है...जब कोई उनके साथ विश्वासघात करे। तौबा... फिर उनके आंसुओं और उल्हानों का हिसाब कौन करे....। शायद इसीलिए वे अपने हर विश्वास को पूरी तरह से निभाते हैं। और यही उनकी सफलता का राज है। मुझे खुशी है कि मैंने अपने स्वभाव की मूर्ति को दीनदयाल जी सरीखे दोस्तों के बीच तराशा है। ऐसे दोस्त...और अब तो मेरे जीजा भी... को अपने साथ जुड़ा देखकर मुझे ईश्वर में विश्वास करने को बाधित करता है। इति। 

प्रमोदकुमार शर्मा, वरिष्ठ हिन्दी उद्घोषक, 
आकाशवाणी, बीकानेर, राजस्थान , मो. 09414506766





Tuesday, June 8, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 11







जितेन्द्रकुमार सोनी 'प्रयास' गत वर्ष आर.ए.एस.पुरुष वर्ग में टॉपर...और इस वर्ष आई. ए. एस. में   29वीं  रैंक से चयनित..)



भाई दीद जी का मैंने खूब नाम सुना था मगर मिलने का पहला मौका  इनके अखबार 'टाबर टोल़ी' के लोकार्पण पर मिला। बड़ा ही स्नेहिल स्वभाव जिसमें रत्ती भर भी अपने नाम और यश की तुष्टि की या अहंकार की तलाश नहीं थी। शक्ल से मालूम होता है कि इन जैसा व्यक्तित्व केवल बाल साहित्यकार ही हो सकता है। वैसे भी बड़ों के लिए लिखने की तुलना में बच्चों के लिए और उन पर लिखना मुश्किल है और अगर ऐसे में दीद जी उन पर लिखते हैं तो निस्संदेह ही उनमें बाल मन को जानने की कुव्वत है। बच्चे यानी सहज, सरल, सरस और पारदर्शी और इनके जैसे ही इनके कलम चितेरे, हां, दीद जी ऐसे ही तो हैं। इनका 'टाबर टोल़ी' आता गया और मुलाकातें बढ़ाता गया और जितना मैं इनको मिलता गया उतना ही इनका मुरीद होता गया। 
राजस्थानी और हिंदी पर समानांतर पकड़ रखने वाले दीद साहब से जुड़ी एक बात कहना जरूरी है कि एक बार इनको मैंने एक रचना भेजी जिसमें मैंने 'यानि' लिखा था। एक दो दिन के बाद इनका फोन आया और बड़े ही दोस्ताना तरीके से मुझे बताया कि 'यानी' ऐसे लिखते हैं। सोचिये कि आज के दौर में सच्चा हितैषी बनकर कौन किसकी गलती बताता है। लोग तो तलाश करते हैं कि सामने वाला कोई गलती करे और हम उस पर अंगुली उठा सकें और ऐसे में इनका संशोधन इनकी छवि को और निखार गया।
   
अगली यादगार मुलाकात इनके आवास पर हुई और मौका था मेरी पहली काव्य कृति 'उम्मीदों के चिराग' के विमोचन का.... जिसका प्राक्कथन भी इन्होंने ही लिखकर दिया था। यहां यह स्वीकार करना जरूरी है पहले मैंने मेरी किताब का नाम 'पाप की गागर' सोचा था जो कि नकारात्मक प्रतीक था। इन्होंने कहा कि यह नाम आपकी छवि और कविताओं पर जंचता नहीं है। मुझे इनकी राय पसंद आई और फिर मैंने 'उम्मीदों के चिराग' रखा और बाद में इस नाम की मुझे भरपूर प्रशंसा मिली, पर इसके वास्तविक हकदार तो दीद जी ही हैं, उसी किताब का विमोचन अब भला मैं किसी और से कैसे करवाता? इसीलिए इनके आवास पर राजस्थानी कथाकार सत्यनारायण भाई व कवि नरेश मेहन और मेरे पिताजी आदि कई जने एकत्रित हुए व दीद साहब ने मेरी पहली किताब का विमोचन किया। 
समय-समय पर ये हमेशा अपनी सलाहों से मुझे परिष्कृत करते रहते हैं। कहां होता है....आज की दुनिया में किसी के बारे में इस तरह की संवेदनाएं रखना.......सफेद खून के इस दौर में दीद साहब ने हमेशा मुझे साहित्य की समझ से परिचित करवाया है। 'टाबर टोल़ी' को मैंने मेरे स्कूल के पुस्तकालय के लिए मंगवाया था। बच्चे सदैव इसका इंतज़ार करते...लगभग बीस से ज्यादा नेठराना के विद्यार्थियों की रचनाओं को स्थान देकर इन्होंने इन बच्चों का हौसला बढ़ाया है।
    
मेरे आर.ए.एस. में चयन होने पर..... वक्त निकाल कर ये मेरे मूल गांव धन्नासर आए तथा परिवार वालों से मिले और अपने मधुर स्वभाव से सबका मन जीत लिया। मैं और कुछ नहीं जानता..... सिर्फ ये एक पंक्ति है मेरे पास....

कल तक हज़ारों रंग के 
फानूस थे जहां....
झाड़ उनकी कब्र पर हैं 
और निशान कुछ नहीं......।
दीद साहब इस अवधारणा को मन में बसा चुके हैं इसीलिए स्वंसिद्धि की बजाय इनका प्रयास साथियों को आगे लाने में ही रहता है क्योंकि इन्हें पता है कि यही तरीका है किसी के मन में सदा के लिए बसे रहने का। हर वक्त सिखाते रहने की ललक और हर बात को सरल तरीके से कहना इनकी विशिष्ट कला है। मैंने इनसे बहुत कुछ सीखा है और आशा है कि इनका स्नेहिल आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहेगा।

जितेन्द्रकुमार सोनी 'प्रयास'
रावतसर, जिला: हनुमानगढ़, राज.

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 10


दीनदयाल शर्मा : बालकों 
के लिए समर्पित व्यक्तित्व

दीपक की भांति संसार में 
जलता है कोई कोई
वृक्ष की भांति संसार में 
फलता है कोई कोई
यूं तो आदर्श की राह पर 
चलने को कहते रहते हैं सभी,
पर इन राहों पर चलते हैं 
'दीद' से कोई कोई।
बाल मनोविज्ञान के ज्ञाता रचनाकार व सबसे विनम्र स्वभाव से मिल जाने वाले इन्सान दीनदयाल शर्मा पर ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं। श्री शर्मा के साथ शिक्षा की विभिन्न लेखन कार्यशालाओं के माध्यम से जुडऩे का अवसर मिला। हंसमुख एवं मिलनसार व्यक्तित्व से अपनी अलग पहचान शीघ्र ही बना लेता है, कलम के धनी इस रचनाकार ने बाल साहित्य में कुछ अलग करने, देशभक्ति की अविरल धाराएं बहाते हुए, अपने कार्य के प्रति निष्ठा को जिस रूप में आगे बिखेरा कि हर सदन, मानस पटल, साहित्यकारों, रचनाकारों के मध्य वे अपनी अमिट छाप छोडऩे में सफल रहे हैं। साहित्य ऐसा हो जो हमें विचार करने पर बाध्य करे, बच्चों में जिज्ञासा एवं आत्मविश्वास की वृद्धि करे। 
श्री शर्मा की लेखनी ऐसी ही अमृतवर्षा करने को आतुर रहती है। आप द्वारा लिखी गई आधुनिक बाल कहानियां बच्चों को भारतीय संस्कृति से न केवल प्रेम करना सिखाती है वरन् उनमें नई सोच पैदा करने की क्षमता को भी आगे बढ़ाती है। युवा पीढ़ी को सीख देने वाली रचनाएं, छोटी बाल कविताएं व संस्कारों से परिपूर्ण बाल कहानियां आधुनिक युग की महत्ती आवश्यकताएं हैं, रचनाकारों को सरस्वती के मान सम्मान को प्रमुखता देने की बात करते हुए आप कहते हैं कि ''हमें वर्तमान के अश्लील, फूहड़ साहित्य का भरसक विरोध करते हुए, बालकों को नैतिक मूल्य एवं अपनी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करने वाले बीजों का संग्रहण करने का पाठ सिखाना चाहिए।
व्यंग्य वह विधा है जो साहित्यिक क्षेत्र में कलम को तलवार से भी तेज धार वाला हथियार साबित कर देती है, श्री शर्मा को इस विधा में भी महारत हासिल है। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले सीरियल जो हमारे सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, पर व्यंग्यात्मक लहजे में सीधा सा आपका उत्तर ''आजकल की नानी, बच्चों को नहीं सुनाती कहानी'' क्योंकि बच्चे व बड़े न चाहते हुए भी टी.वी. के चिपके रहते हैं। क्या हमारी सांस्कृतिक धरोहर पाश्चात्य सांस्कृतिक हमलों से छिन्न-भिन्न हो जाएगी, इस प्रश्र का उत्तर भी जिस सटीकता से आपने दिया है उससे हमें इस देश में जन्म लेने के गौरव को और भी अधिक प्रतिपुष्ट कर दिया। आपने कहा था-

मां अपनी ममता को 
छोड़ नहीं सकती।
बाहुबली की भुजाएं 
नदियां मोड़ नहीं सकती।।
संस्कृति की दीवार 
इतनी समृद्ध है हमारी,
फिरंगियों की ताकत 
इसे तोड़ नहीं सकती।।
सामाजिक कत्र्तव्यों को निभाते हुए व राजकीय सेवा में पूर्ण निष्ठा से आपका समर्पण आधुनिक युग में भौतिकता की अन्धी दौड़ में समाज में एक दीपक की भांति रोशनी बिखेरता हुआ सही राह दिखाने वाला प्रतीत हो रहा है, आज जब अधिकांश व्यक्ति किसी अच्छे कार्य को करने के लिए 'समय नहीं है' का बहाना लिए टालना चाहते हैं आपके लिए यह कहना युक्ति युक्त होगा कि-

अपने लिए जीए तो क्या जीए।
तूं जी ए दिल ज़माने के लिए।।
छोटे बच्चों के लिए ढेर सारा प्यार एवं अनमोल रचनाएं लेकर हर समय अपनी उपस्थिति देने वाले इस व्यक्तित्व को सादर नमन एवं उज्ज्वल मंगलमय जीवन हेतु शुभकामनाएं।

सुनील कुमार डीडवानिया,