Friday, July 16, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -18

सीधे-सरल और हंसोड़ प्रवृत्ति के 
इन्सान हैं दीनदयाल शर्मा

लेखन यात्रा के शुरुआती कदम थे। बाल कहानियां लिखता था। कदम डगमगाते, संतुलन बिगड़ता तो भाई राकेश शरमा (अब दिवंगत) और मासूम गंगानगरी अंगुली थाम कर गिरने से बचाते। राज्य व राष्ट्रीय स्तर की कुछ पत्र-पत्रिकाओं में बाल कहानियां छपी तो मित्रों ने राय दी कि बाल कथा संग्रह छपवाया जाए। अनुभव था नहीं, किसी ने बताया कि हनुमानगढ़ में दीनदयाल शर्मा हैं, वे प्रकाशन में मार्गदर्शन कर देंगे और पुस्तक छपवा भी देंगे। 

संयोग से अगले दिन राजस्थान पत्रिका में दीनदयाल शर्मा की कविताएं छपीं। नीचे पता भी छपा था। मैंने एक पोस्टकार्ड डाल कर एक पुस्तक छपवाने की इच्छा जताई। चार दिन बाद ही जवाब मिला, इस उलाहने के साथ कि आपने मेरा पता राजस्थान पत्रिका से लिया लेकिन कविताओं का जि़क्र ही नहीं किया। मैं अनाड़ी आदमी, उस समय न तो कविता पर टिप्पणी करनी आती थी और न ही इतनी समझ थी कि कविताओं से बात शुरू कर पुस्तक तक आना चाहिए। 

खैर! दीनदयाल जी ने हनुमानगढ़ आकर मिलने का न्यौता दिया तो एक रविवार को बाल कथाओं की पांडुलिपि लेकर पहुंच गया उनके घर। दीनदयाल शर्मा व भाभीजी ने पूरी आवभगत की। तीन घण्टे की बैठक में दीनदयाल जी ने मुझे स्पष्ट राय दी कि मैं नया हंू। मुझे किताब छपवाने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। फिर भी मेरा दिल रखने के लिए उन्होंने पांडुलिपि रख ली। 

बाद में उनमें से मेरी एक बाल कहानी उन्होंने अपने संपादन में निकले कुछ बाल कथाकारों के संकलन में भी शामिल की। इस बीच मेरा भी विचार बना कि मैं पुस्तक छपवाने की जल्दी न करूं। मैंने दीनदयाल जी को पत्र लिखकर पांडुलिपि मांगी। उन्होंने बताया कि बाल कथा संग्रह संपादन के दौरान वह पांडुलिपि दिल्ली ले गए थे और वह पांडुलिपि अब भी दिल्ली में एक प्रेस पर पड़ी है। 

पांडुलिपि मांगने का यह सिलसिला साल भर तक चला और एक दिन दीनदयाल जी ने बताया कि जमुना में बाढ़ आने से वह पांडुलिपि व प्रेस की बहुत सारी सामग्री बह गई है। अब वह नहीं मिल सकती। यह बात 1987-88 की है। दो दशक से भी ऊपर समय बीत जाने के बाद मुझे लगता है कि जमुना की बाढ़ में बही मेरी बाल कथाओं की पांडुलिपि ने दीनदयाल शर्मा से मेरी मित्रता और भी गहरा कर दिया है।

इलाहाबाद में जब मुझे मीरा स्मृति सम्मान मिला तो अपनी 85 वर्षीया माताश्री के साथ दीनदयाल जी व भाभीजी श्रीमती कमलेश शर्मा के सान्निध्य में तीन-चार दिन प्रयाग धाम में रहने का अवसर मिला।  उन दिनों को मेरी मां आज भी याद करती है। मेरी मां का जितना ख्याल दीनदयाल जी व भाभीजी ने रखा, उतना मैं स्वयं भी नहीं रख पाया। उन दिनों की स्मृति ही हमारी पूंजी है।

दीनदयाल शर्मा सीधे-सरल और हंसोड़ प्रवृत्ति के इन्सान हैं। हर बात पर चुटकला उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है, मुझे लगता है कि जिस स्कूल में वे कार्यरत हैं, वहां के बच्चे कितना कुछ सीखते होंगे इस सरल हृदयी इन्सान से। आमीन।

कृष्णकुमार 'आशु', पत्रकार व साहित्यकार
128, मुन्शी प्रेमचन्द कॉलोनी, 
माइक्रोवेव टावर के पास, 
पुरानी आबादी, श्रीगंगानगर
मो. 9414658290
9772608000

16 अप्रैल, 2010 के बच्चों के अखबार टाबर टोळी से साभार

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