Monday, July 5, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में -15




बाल सुलभ व्यवहार : 
भगवान की अप्रतिम भेंट

श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ के पाठकों को श्रेय जाता है 'पंचमेल' स्तंभ की शुरूआत और इसे निरंतर जारी रखने का। पाठकों की हर सप्ताह मिलने वाली प्रतिक्रिया का ही दबाव रहा कि 'पंचमेल' किसी सप्ताह मिस नहीं कर पाया। मन ही मन लगता था इस बार नहीं लिखा तो समाज में नाक कटने जैसी हालत होजाएगी। 'पंचमेल' के ही कारण जिन सज्जन  लोगों से संवाद, निरंतरता और फेस टू फेस पहचान की स्थिति  बनी उस सूची में श्री दीनदयाल शर्मा का नाम भी प्रमुख है। शर्माजी से फोन पर पंचमेल को लेकर लगभग हर सप्ताह चर्चा होती थी। 

एक बार हनुमानगढ़ के तत्कालीन जिला कलेक्टर नवीन जैन के चित्रों के साथ हनुमानगढ़ में काव्यात्मक नुमाइश लगी थी। मैं भी सपरिवार गया था। सोचकर गया था कि चित्रों की नुमाइश के बहाने हनुमानगढ़ के साहित्यकारों से मुलाकात हो जाएगी। लेकिन वहां जितनी भी देर रुका तो वरिष्ठ पत्रकार होने के सारे भ्रम दूर हो गए । वैसे भी जहां कलेक्टर सपत्नीक उपस्थित हों , वहां तो बाकी लोगों पर तभी नजर जाती है जब लालबत्तियां दूर चली जाएं। मेरी ही तरह दीनदयाल जी भी एक कोने में खड़े थे। मैं तो पहचान नहीं पाया। वे सहजता से आए, अपना परिचय दिया तब जाना कि ये हैं 'टाबर टोल़ी' के सर्वेसर्वा। मीरा के भजन की पंक्ति है 'घायल की गति घायल जाने, की जिन लागी होय...' हम दोनों एक-दूसरे के भाव-पीड़ा मन ही मन समझ गए। मैं तो कुछ देर में चुपचाप वहां से रवाना हो गया। बाद में दीनदयाल जी का फोन आया, मैं आपको खोज रहा था, आपसे बात ही नहीं हो पाई।
    
'टाबर टोल़ी' मुझे नियमित मिलने लगा, मुझे इस अ$खबार में उनकी मेहनत हर पेज और एक-एक  पंक्ति में नज़र आती है। बच्चों के लिए समर्पित टाबर टोल़ी के अंक से शुद्ध हिंदी कैसे लिखें यह भी समझा जा सकता है। शुद्ध और अशुद्ध वाक्यों के कॉलम से  कई बार मुझे भी शब्द दोष सुधारने में सहायता मिली है। मैंने तो चर्चा में कई बार उन्हें सुझाव भी दिया है कि उन्हें शुद्ध-अशुद्ध शब्दों वाले इस कॉलम के संग्रह को पुस्तक रूप देना चाहिए। दीनदयाल जी सिद्धहस्त बाल साहित्यकार-व्यंग्यकार हैं लेकिन घमंड उन्हें छू भी नहीं पाया है। साहित्यकारों में कई बार यह ठसक देखने को मिल जाती है लेकिन उनमें ऐसे लक्षण तक देखने को नहीं मिलते, तो शायद इसका एकमात्र कारण उनका बाल साहित्यकार होना है। बच्चे भी तो निंदा-घमण्ड-तेरा-मेरा की भावना से मुक्त होते हैं।
   
 एक दिन शर्मा जी का फोन आया- मैं आप से मिलने आ रहा हूं। जो समय तय था उस समय पहुंच नहीं पाए क्योंकि जब आप किसी के बस में होते हैं तब बेबस हो जाते हैं। शर्मा जी तो बस से आ रहे थे। विलंब के कारण वे रास्ते भर फोन करते रहे और अपनी मजबूरी बताते रहे। कार्यालय आए भी तो वही दीन भाव था कि समय पर नहीं पहुंच सका। आज के ज़माने में कौन इतना सोचता है जबकि निर्धारित समय से आधे-एक घण्टे विलम्ब से पहुंचना तो जन्मसिद्ध अधिकार जैसा हो गया है। पेशे से अध्यापक-पुस्तकालयाध्यक्ष दीनदयाल जी से बातें शुरू करो तो समय का पता ही नहीं चलता। वे बिल्कुल बच्चों की तरह सहजता, उत्सुकता से सुनते-समझते और बोलते हैं। 

मुझे श्रीगंगानगर में दो वर्ष के कार्यकाल में जो याद रखे जाने वाले लोग मिले उनमें दीनदयाल जी अपने व्यवहार, साफग़ोई, निष्कपट शैली और पाक्षिक अखबार टाबर टोल़ी के लिए की जाने वाली मेहनत के कारण सदैव याद रहेंगे। आजकल तो एकाध पुरस्कार-सम्मान मिलने के बाद ही शरीर कलफ लगे कपड़ों की तरह अकड़ा रहता है लेकिन इतने पुरस्कार, सम्मान, साहित्य प्रकाशन के बाद भी दीनदयाल जी बच्चे ही नज़र आते हैं। मुझे तो लगता है यदि बाकी लोगों को अहं विरासत में मिलता है तो उन्हें यह बाल सुलभ व्यवहार भगवान की अप्रतिम भेंट के रूप में मिला है। कोई इतना सहज भी हो सकता है, उन्हें देखकर फिर यह सिद्ध हो जाता है कि जो अपने कार्य क्षेत्र में जितना बड़ा है उतना ही सहज भी होता है। 

भास्कर कार्यालय आए तो करीब पौन घण्टे बातचीत चलती रही, जाने से पहले कैमरा निकाला और बड़े ही आत्मीय अनुरोध के साथ एक फोटो भी लिया। वो दोनों का फोटो लेकर खुश हो रहे थे और मैं चाहते हुए भी नहीं कह पा रहा था कि शर्माजी एक फोटो मुझे भी भेजना। उनकी सहजता के आगे मैं खुद को असहज महसूस कर रहा था। शायद इसीलिए मैं नहीं कह पाया। 

देशभर के साहित्यकारों, प्रतिष्ठितजन से आत्मीय संबंध रखने और संबंध निभाने वाले शर्माजी जयपुर, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता बस गए होते तो उनका कद-पद और बढ़ जाता पर यह अपनी मिट्टी के प्रति जुड़ाव ही है कि वे हनुमानगढ़ नहीं छोड़ पाते। इससे हनुमानगढ़ का मान भी बढ़ा है और देश में हनुमानगढ़ को दीनदयाल जी के कारण पहचान भी मिली है। 

कीर्ति राणा, प्रभारी संपादक, दैनिक भास्कर, श्रीगंगानगर, वर्तमान : शिमला
मोबाइल : 09816063636












1 comment:

  1. बालकों जैसा निष्कपट मन है!
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    दीनदयाल जी का!

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