Sunday, June 6, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 6















दीनदयाल शर्मा के साहित्य में अनूठे प्रयोग

बिना ज्ञान, कौशल एवं लगन के साहित्य लिखना मुश्किल है। साहित्य वही लिख सकता है जिसे अच्छे और बुरे की परख हो। समाज में जो घटता है, वही साहित्यकार देखता है, भोगता है, और उसे अनुभव भी करता है। साहित्य समाज का वह आइना है जो साफ दिखाता है। उसमें छल-कपट नहीं होता है। जब साहित्यकार की पैनी दृष्टि बाल साहित्य पर भी जाती है तो लगता है उसने बहुत कुछ देख लिया है। अगर उसे कलमबद्ध कर दिया जाए और समाज के सामने पेश कर दिया जाए तो लगता है साहित्यकार ने अपना फर्ज ईमानदारी से निभाया है।


इसी श्रृंखला के साहित्यकार हैं, श्री दीनदयाल शर्मा। इन्होंने हर तरह का साहित्य लिखा है। चाहे कहानी, कविता एवं व्यंग्य हो, नाटक हो और चाहे बच्चों के लिए कलम चलानी हो, वे अलग से दिखते हैं। इन्होंने अपने संग्रहों में अनेक प्रयोग किए हैं। इतना कहना पर्याप्त नहीं है कि इन्होंने बच्चों को ज्ञान आधुनिक युग में अपने बाल साहित्य के जरिए एक ऐसा संदेश दिया है जिसके जरिए बच्चे राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका अच्छी तरह निभा सकते हैं। 


मुझे इनका व्यंग्य संग्रह 'सारी खुदाई एक तरफ' पढऩे को मिला। कितनी करारी चोट छिपी है उसमें, पढ़कर पाठक सोचने पर विवश होता है। 'भविष्यफल का चक्कर', 'बहुत पछताए मेहमान बनकर', 'खूबसूरत बनने की चाह' जैसे व्यंग्यों में ऐसी चोट है जो दिल को छूती है। इतना ही नहीं, ऐसे व्यक्तियों को सुधारने में अपनी प्रभावी भूमिका निभानी है जो अंधविश्वासों, मेहमानबाजी और आज के सौंदर्य-प्रसाधनों के शिकार हैं। इस संग्रह के अन्य व्यंग्य 'भांति-भांति के लोग', 'कुत्ता पालिए', 'यदि मैं होता जन नेता', 'रोडवेज की आत्मकथा' एवं 'देख कबीरा रोया' आज की व्यवस्था पर चोट तो करती ही हैं साथ में सुधार का भी संदेश देने में सक्षम है। करीब सोलह वर्ष पहले छपा यह व्यंग्य संग्रह आज भी हर दिन हमें सोचने को मजबूर करता रहता है। इनका बाल साहित्य जैसा कि ऊपर कहा है, बच्चों के लिए हमेशा प्रासंगिक रहेगा।

कृति 'पापा झूठ नहीं बोलते' की छ: बाल कहानियों में 'पश्चाताप के आंसू' झकझोरती है पश्चाताप करने को और अनूठा संदेश देती है जिसमें पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। बाल साहित्य पर वास्तव में एक अनूठी पुस्तक कई दिनों बाद पढऩे को मिली। दीनदयाल शर्मा की एक और कृति 'चिंटू-पिंटू की सूझ' वास्तव में एक लाजवाब कृति है। राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत इस कृति की सभी कहानियां जहां बच्चों को अच्छे नागरिक बनने की प्रेरणा देती हैं वहीं उनके व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक होने में विशेष योगदान देती है। 'लोमड़ी की सूझ' एवं 'मोर की जिद्द' जैसी कहानियों में अनूठे प्रयोग किए गए हैं।

ज्यों-ज्यों शिक्षा पद्धति बदलती गई, कान्वेंट एवं पब्लिक स्कूलों में वृद्धि होती गई और पढ़ाने के ढांचे में भी परिवर्तन आता गया। बच्चे का बस्ता भारी होता गया। इसी आशय को लेकर श्री शर्मा ने कावय के रूप में 'कर दो बस्ता हल्का' नाम से एक और कृति लिखी। इनकी ये पक्तियां ''बस्ता भारी, मन है भारी, कर दो बस्ता हल्का,मन हो जाये फुलका' मन और दिल दोनों में हलचल मचाती है। इन पंक्तियों में व्यंग्य ही नहीं बल्कि संदेश भी है और साथ ही ये पंक्तियां मन की गहराई में ही नहीं उतरती बल्कि व्यवस्था पर भी करारी चोट करती है। बच्चा बारह किलो का और बस्ता तेरह किलो का, कैसी व्यवस्था है यह? ''मेरी मैडम, मेरे सरजी, हमें पढ़ाते, अपनी मरजी' सब कुछ कह देती है यह चार लाइनें। तो क्या शिक्षक अपना धर्म भूल गए हैं? इसी के साथ ही इनकी एक और बाल कथा कृति 'चमत्कारी चूर्ण' अलग छाप छोड़ती है।
    
श्री शर्मा ने हिन्दी में ही नहीं बल्कि राजस्थानी में भी बाल साहित्य लिखा है। उसे पढ़कर तो एक बात और पुख्ता हो जाती है कि राजस्थानी भाषा के माध्यम से इन्होंने बात बच्चों तक ही सीमित नहीं रखी है बल्कि बड़े-बूढ़ों को भी सोचने पर विवश किया है। कहानी 'स्यांती' के माध्यम से इन्होंने एक ऐसी लड़की के संघर्ष की कहानी लिखी है जो नारी के मान-सम्मान को ही बरकरार नहीं रखती अपितु संघर्ष में भी जीत की बात करती है। स्यांती की कहानी पढ़कर तो मुझे ऐसा लगा जैसे यह एक स्यांती की कहानी नहीं है बल्कि बहुत सी स्यांतियों की कहानी है। ऐसी कहानियां उस समाज की सोच बदलने में सक्षम है जहां नारी को दोयम दर्जे की माना है।
   
 'बात रा दाम' कृति बच्चों के तीन नाटकों पर आधारित है। यह कृति मनोवैज्ञानिक तौर पर यह सोचने को मजबूर करती है। इस कृति में समाहित तीनों नाटक मंचन करने लायक हैं। मानद साहित्य संपादक के रूप में लेखक 'टाबर टोल़ी' नाम से एक पत्र भी निकालते हैं जो देश के कोने-कोने में जाता है। यह एक लाजवाब संघर्ष है। परन्तु इसी नाम से इनका राजस्थानी कहानी संग्रह 'टाबर टोल़ी' भी प्रकाशित हुआ है। 'काळू कागलो अर सिमली कमेड़ी'जैसी स्तरीय रचना लिखकर लेखक ने एक नयी रेखा पैदा की है। ऐसी प्रशंसनीय कहानी बाल साहित्य में बहुत कम पढऩे को मिलती है। इसके साथ ही 'म्हारा गुरुजी' जैसी एकांकी भी लिखी है जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि सब कुछ सामने ही घट रहा है। अपने आस पास जो हो रहा है इसे उभारने में यह एकांकी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। इसी कड़ी की इनकी कृति 'तूं कांईं बणसी' भी अलग से नजर आती है।

राजस्थानी भाषा में लिखी हुई इनकी अन्य कृतियां 'शंखेसर रा सींग' एवं 'सुणौ के स्याणौ' भी उतनी ही प्रभावशाली छाप छोड़ती है जितनी 'स्यांती'। हिन्दी माध्यम के साथ-साथ मायड़ भाषा राजस्थानी में भी दीनदयाल शर्मा ने बच्चों के लिए ऐसी आकृति पैदा की है जिसकी गूंज आने वाले वर्षों तक भी महसूस की जाएगी और इनका बाल साहित्य बच्चों के विकास में हमेशा ही योगदान देता रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

अंत में मैं इनकी एक और कृति की चर्चा करना अति आवश्यक समझता हूं। वाह, इन्होंने अंग्रेजी में भी हाथ डाला है। यह भी बाल कृति है 'द ड्रीम्स'। इस कृति का विमोचन 17 नवम्बर 2005 को तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति श्रद्धेय डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के हाथों संपन्न हुआ था। हर बच्चा एक सपना देखता है, कितने सपने साकार होते हैं, परन्तु यह कृति बच्चों को संदेश ही नहीं देती बल्कि उनके लिए एक सकारात्मक सोच पेश करती है।

दीनदयाल शर्मा कई वर्षों से लिख रहे हैं वह वास्तव में अनूठा है। भविष्य में भी वे बाल साहित्य के जरिए ही नहीं बल्कि हर दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इनके तमाम लेखन के लिए मेरी बधाइयां।

'मेजर' रतन जांगिड़
मानसरोवर, जयपुर,

दिनांक : 17/07/2007






बच्चों के अखबार "टाबर टोळी " से साभार...
Edition : 16 - 31 March , 2010

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