Sunday, June 20, 2010

दीनदयाल शर्मा : आपकी नज़र में - 12



वह तराशता रहा मुझे..........

''गुझिया की गाय'' और  ''नंगा पहाड़'' कहानियां प्रमोद से सुनी। कहानियों में दिए गए विचारों एवं सोच में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। ....प्रथम कहानी में मुझे लगा जैसे इसमें कुछ छूट रहा है। दूसरी कहानी अंत तक बांधे रही। पूरी समीक्षा मैं अलग से दंूगा। शुभकामनाएं..............। दीनदयाल शर्मा, 26.5.87
.......हनुमानगढ़ आ छ: साल हो चुके थे। शब्द की अर्थवत्ता और उसकी सत्ता के स्वभाव की पड़ताल जारी थी। गंावों का अंधविश्वास, पिछड़ापन और हीनता लेकर मैं शहर आया था, पर धीरे-धीरे ये सब चीजें मेरे दामन से स्वत: ही छूटती चली गई। क्योंकि शहर में मुझे आते ही कुछ करीने लोग मिल गए थे। रविदत्त मोहता, मायामृग, संजय माधो, नरेश विद्यार्थी, राजेश चड्ढा, ओम पुरोहित, महेश सन्तुष्ट, सीमान्त, अमित यायावर और दीनदयाल शर्मा.......।
अक्सर जब मैं कोई कहानी लिख लेता तो उसे दिखाने के लिए उतावला हो कर पूरे शहर में घूमता था। कभी रविदत्त मोहता के पास, कभी मायामृग के पास, कभी ओम पुरोहित के पास तो कभी दीनदयाल शर्मा के पास.... और फिर लिखवा लेता उनसे कहानी पर टिप्पणी। ये टिप्पणियां दर्शाती है कि अस्सी के दशक में हनुमानगढ़ क्षेत्र में साहित्य और समालोचना को लेकर कितनी गंभीर चिंताएं साझा होती थीं। हालांकि हममें से किसी के पास टू व्हीलर नहीं था। फिर भी दूरियां कभी आड़े नहीं आयी। चाहे पैदल हो या साइकिल। ऑटो रिक्शा हो या सिटी बस। हम लोग एक तड़प के साथ एक दूसरे तक पहुंच जाते थे। ओम जी दुर्गा कॉलोनी, रविदत्त पी.डब्ल्यु.डी. कॉलोनी, राजेश चड्ढा सैक्टर-12 तो दीनदयाल जी मक्कासर में रहते थे। फिर भी ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब हम एक-दूसरे से मिलते नहीं थे। उन दिनों हम लोगों ने एक दूजे को तराशना शुरू कर दिया। हम लोग अपनी रचनाओं पर जमकर दंगल करते..फिर उनको लेकर प्रकाशन की योजनाएं बनाते...मन्सूबे बांधते और कल्पना के यथार्थ में गोते लगाते.....।
उन्हीं दिनों ओम पुरोहित, दीनदयाल शर्मा और मैंने, मिलकर राजस्थान साहित्य परिषद् बनाई। हमारी अंगुलियों से हर वक्त स्याही टपकती रहती। हम लोग तै कर चुके थे कि हमें एक श्रेष्ठ साहित्यकार बनना है। चंूकि संस्था बनी तो कार्यक्रम भी हुए। परिचर्चा, नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, विमोचन, आंचलिक समारोह...देखते ही देखते हम लोग रामकुमार ओझा, करणीदान बारहठ, मोहन आलोक, मंगत बादल और जनकराज पारीक इत्यादि से गहरे तक जुड़ते चले गए और हनुमानगढ़ पूरे क्षेत्र में सबसे चर्चित जगह होता चला गया।
इन्हीं दिनों आया मेरा पहला कहानी संग्रह-सच तो ये है.....। संपर्क प्रकाशन से छपी यह पुस्तक लेने के लिए मैं और दीनदयाल जी दिल्ली गए। अर्थाभाव और कम जानकारियों की दुविधा के बावजूद दिल्ली जैसी जगह में उनका आत्मविश्वास मुझे आज भी प्रेरणा देता है। यों तो शहर में अक्सर उनसे मिलता था, लेकिन दिल्ली में जिन दीनदयाल शर्मा से मुला$कात हुई...वे एक दूसरे ही दीनदयाल थे। मुझे नहीं मालूम था कि वे मुझे लेकर इतने जिम्मेदार और पीड़ा उठाने वाले हैं। उनके काम करने की पद्धति और समर्पण मुझे आज भी अपने प्रत्येक दायित्व के निर्वाह में सहायता प्रदान करते हैं।
चाहे दिल्ली हो या हनुमानगढ़, बीकानेर हो या रावतसर... दीनदयाल शर्मा के हाथों से दया, करुणा, परोपकार, उदारता, सत्यता इत्यादि सद्गुण कभी नहीं छूटे बल्कि ये गुण इनमें इतनी सघनता से भराव लेते हैं कि आस पास का पूरा वातावरण हन देवीय गुणों से स्पंदित हो जाता है..... कितने ही बच्चों को किताबें दीं, कितने ही लेखकों को सहायता दी, कितने ही घायलों की सेवा की, कितने ही पीडि़तों के लिए आंसू बहाए....ये सब इतना विस्तार चाहते हैं कि उन पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। लेकिन अगर संक्षेप में कहंू तो बात-बात पर भावुक हो जाने वाले दीनदयाल शर्मा के पास वह हृदय है, जिसकी कसमें खायी जा सके... फिर भी ऐसे बहुत से मौके आए जब हम दोस्तों में टक्कर हुई। कभी दीनदयाल जी नाराज़, कभी मैं तो कभी ओमजी। हम एक दूसरे की जमकर आलोचना करते और सच झूठ का सारा नतीजा निकलने तक मैदान में डटे रहते। इस बीच कभी कभी हम लोग कई-कई दिनों तक एक -दूसरे से नाराज़ रहते.... लेकिन हमारा प्यार कभी कम नहीं हुआ..... नाराज़गी की बात चली है तो एक किस्सा.....।
जुलाई 1986 में दीनदयाल जी मक्कासर से हनुमानगढ़ आ गए। सैक्टर 12 में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगे। एक दोपहर मैं और ओमजी पहुचे उनके कमरे पर। दीनदयाल जी नदारद। बड़ा सारा ताला। हमने निर्णय किया कि  इतनी दूर से चलकर आए हैं वापिस तो नहीं जाएंगे...यहीं इन्तज़ार करते हैं और हमने कमरे का ताला तोड़ा...और भीतर जाकर बैठ गए जमकर। कागज खराब किए ...हलुवा बनाकर खाया...गीत गाए...और जब दीनदयाल जी आए तो बहुत गुस्सा हुए और बहुत दिनों तक गुस्से में रहे....पता नहीं वह क्या वजह रही होगी कि हमारे भीतर परमात्मा ने ऐसी नजदीकियां पैदा की...लेकिन जहां तक मैं समझता हंू ये सब घटनाएं एक दूसरे को तराशने के लिए थीं.....। उस घटना से सबक लेकर फिर मैंने कभी दीनदयाल जी का दिल नहीं दुखाया और उनके प्रति ऐसा कोई काम नहीं किया जिसमें उनकी आस्था नहीं...।
जहां तक उनकी आस्थाओं का प्रश्न है वे मनुष्य के अस्तित्व पर टिकी हैं। दीनदयाल शर्मा मनुष्य के आकार प्रकार में किसी भी तरह की कमी को स्वीकार नहीं करते हैं बल्कि हमेशा पूरा देखना चाहते हैं। उनका साहित्य मनुष्य और मनुष्यता में विश्वास का साहित्य है। वे कहीं अति सरल हृदय के साथ बच्चों के लिए कविताएं और कहानियां लिखते हैं तो कहीं माथे पर भृकुटि तानकर व्यंग्य कहते हैं। कहीं वे रेडियो नाटक लेकर हाजि़र हो जाते हैं...कहीं वे चुटकुले सुनाने लगते हैं... सचमुच ऐसा भरा-भरा सा निगर आदमी समाज के लिए उपलब्धि है। हालांकि यह भरा-भरा सा आदमी तब बहुत खिन्न और तिड़का हुआ  आदमी बन जाता है...जब कोई उनके साथ विश्वासघात करे। तौबा... फिर उनके आंसुओं और उल्हानों का हिसाब कौन करे....। शायद इसीलिए वे अपने हर विश्वास को पूरी तरह से निभाते हैं। और यही उनकी सफलता का राज है। मुझे खुशी है कि मैंने अपने स्वभाव की मूर्ति को दीनदयाल जी सरीखे दोस्तों के बीच तराशा है। ऐसे दोस्त...और अब तो मेरे जीजा भी... को अपने साथ जुड़ा देखकर मुझे ईश्वर में विश्वास करने को बाधित करता है। इति। 

प्रमोदकुमार शर्मा, वरिष्ठ हिन्दी उद्घोषक, 
आकाशवाणी, बीकानेर, राजस्थान , मो. 09414506766





1 comment:

  1. पुरानी बातें...यादें..किस्से...क्या बात है...

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